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लाला जी बारात में

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  लाला जी बारात में   संगम नगरी के यमुना नदी के दक्षिण पश्चिम में स्थित भोले बाबा के इस मंदिर को मनकामेश्वर के नाम से जाना जाता है , जो जसरा क्षेत्र में लगता है , यहीं पास में ही एक गांव है बवंधर , जो धरा गांव के पास में ही है । वर्तमान के यातायात की सुगमता और सूचना तकनीक ने चीजों की पहुंच को बेहत सहज कर दिया है , इससे पहले लोग शादियों की खोज के बहाने नई नई जगहों को खोज कर अपने गांव भर में वास्कोडिगामा बने फिरते थे। बात लगभग 35 वर्ष पूर्व की होगी जब बवंधर गांव में बारात का स्वागत होना था , चूँ कि गांवों में किसी के घर शादी होती तो पूरे बिरादरी की जिम्मेदारी हो जाती और गांव के गांव तैयारियों में जुट जाता था , कुछ ऐसा ही दृश्य बवंधर का भी था । किसी भी चीज़ की कोई कमी न हो इसके लिए काफी दिन पहले से ही वृद्धजन अपनी सजगता दिखाते हुए युवा और किशोरों की सहायता से  देख रेख में लगे थे , उसी का परिणाम है कि किसी चीज़ में त्रुटि मिलती तो वृद्ध लोग युवाओं को और  युवा वृद्धों को कह सुना लेते और ब...

१५ अगस्त

 आज १५ अगस्त के इस पावन बेला पर अपने वीरों को नमन करता हुं, आज के ही दिन दोनों भाई चाचा नेहरू और उनके भाई जिन्ना अपनी अपनी पैतृक संपत्ति का बटवारा कर सुख चैन से रहना स्वीकार मात्र किया था और इसी खुशी में शाम को केक काटा गया लेकिन चाचा नेहरू ने केक पेरिस से मंगवाया था इसलिए गांधी जी द्वारा इसका जनता के सामने विरोध किया गया चुकीं आज के ही दिन उनका भी जन्म हुआ था इस वजह से काफी आग्रह के बाद उन्हें केक खाना पड़ा । आज के ही दिन गांधी जी की हत्या कर दी गई, उन्होंने इस पैतृक संपत्ति को बाकी भाईयों में उचित बटवारा करने की सोची लेकिन कुछ दुराचारियों को यह निर्णय सही नहीं लगा और अहिंसा के पुजारी से हिंसा किया । गांधी जी इतने महान व्यक्तित्व हैं कि उन्होंने सारे वीरों की आहुति अपने सर लेली और उनके द्वारा दुश्मनों पर किया गया हिंसा को ढक कर उनका सारा भार संभाल लिया। आज के ही दिन बाबा साहेब आंबेडकर जी भी पैदा हुई थे, चुंकि विदेश से पढ़े लिखे और बड़े संभ्रांत थे इसलिए उन्हें पिछड़ों का नेतृत्व न देकर जाती विशेष का नेतृत्व संभालने को दिया गया ताकि अंग्रेजों द्वारा छूटी हुई कोशिश को पूरा किया जा स...

आत्महत्या : (भाग - 2)

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  विवेक ने देखा कि वो उस पुल के ऊपर है लेकिन न तो बैठा है और न ही वो खड़ा है , विवेक हैरान तो तब हुआ जब उसने नीचे देखा कि पानी में किसी की लाश तैर रही है उसके हाथ पाव फूल गए क्योंकि उस लाश के कपड़े, कद – काठी , गढ़न वही था जो विवेक का था । विवेक को समझने में देर न लगी कि अब वो जीवित नहीं है, उसे बहुत धक्का सा लगा और विलाप में उसके आँसू बहने लगे उसके अंदर जीने की चाह अपने चरम पर पहुँच रही थी, उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि अब क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? विवेक को अपने परिजन के पास जाने की इच्छा होने लगी , बार - बार उन्हीं को याद करता और सोचता कि बस एक बार मिल लेता तो अच्छा रहता , विचार करते हुए उसने गर्दन को शून्य की तरफ उठाया ही था कि उसने देखा दो चमकदार चीजें उसके पास चली आ रही थी उनकी गति इतनी तीव्र थी कि विवेक के पलक झपकते ही वो आकाश से विवेक के पास तक पहुँच गयी, विवेक ने देखा ये तो 2 लोग हैं, विवेक के पूछने पर उन्होंने अपना परिचय दिया, उनके परिचय से विवेक ने अपनी जिज्ञासा सुलझाने के लिए उनसे प्रश्न करता है – विवेक – आप दोनों ही यम के दूत हैं , तो क्या आप लोग मुझे ले जाने आए हैं ? दूत 1 ...

आत्महत्या (भाग 1)

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शनैः शनैः मार्तण्ड (सूर्य) का दबदबा कम होता जा रहा था और निशापति की (चांद) जिम्मेदारी का बोझ बढ़ता जा रहा था , एक तरफ सूर्य देव माँ गंगा को प्रणाम करते हुए विनम्रता में झुके जा रहे थे और दूसरी तरफ चंद्रदेव ने कार्यभार संभालने के लिए उठते हुए माँ की गोद में समा गए, मानों जैसे किसी तराजू के एक पलझे पर सूर्य देव हों और दूसरे पर चंद्रदेव और तराजू पश्चिम की ओर झुक जाने को तैयार था मानों यही न्याय है और है भी । परंतु इस भोगलोक में न्याय तब माना जाता है जब तराजू के पलड़े बराबर हों और न्याय देवी की आँखों पर पट्टी पड़ी हो, लेकिन पट्टी न्याय देवी पर ही क्यूँ ? क्यों सिर्फ स्त्री के आँख बंद कर लेने से ही सब ठीक हो जाए ? या शायद इसी वजह से स्त्री की ही सुनवाई है ! काश कोई न्याय देवता होता तो पुरुषों की भी सुन लेता , यही सब सोचते हुए विवेक सूर्य देव की तरह ही किसी सोच में डूबता जा रहा था उसे नदियों की कल कल के शोर में भी शांति महसूस हो रही थी । थोड़ी ही दूर में नदी के बाएं तरफ बने पुल से एक तेज रफ्तार ट्रेन हॉर्न बजाते हुए गुज़र रही थी उस आवाज़ ने विवेक का यज्ञ भंग किया और विवेक ने अचानक आँखें खोल ली, म...

अभिनय

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खुद को कितना भी बलपूर्वक व्यस्त किए रहोगे, बावजूद न सिर्फ मन बल्कि उस इंसान की खुशबू भी वातावरण में घुली हुई सी लगेगी, मानो वो अदृश्य होकर तुम्हारे बगल बैठा हो, मानो आपका भार बाॅंटने को अपनी जिम्मेवारी समझ कर्तव्य पूरा कर रहा हो , साथ ही लेकिन अदृश्य हो कर कड़ी सजा देना चाह रहा हो , सजा कहो या फिर शायद याद दिलाना चाह रहा हो लेकिन याद क्या दिलाना है? याद भी वो आते हैं जो कभी रहे हो।  बात सिर्फ खुशबू तक नहीं रह गई है, यह उससे भी आगे बढ़कर उसके एहसास मानो चूरन जैसे खट्टे - मीठे दोनों भाव रह-रह कर विद्रोह कर बैठते हैं। काफी देर तक सोचने के बाद हल यही निकला कि बिना हल गड़ाए उपज संभव नहीं है, हल जब भी चलता है तो धरती को चीरता हुआ चलता है और जब तक यह ना हो तो खाद्यान्न पूर्ण हो ही नहीं सकता। परंतु इतनी परिश्रम क्यों; अगर ये जगत् मिथ्या है तो फिर क्या फर्क पड़ता है किसी से, अकेले आए थे और अकेले ही चले जाना है, ये पैदा होने से अंतिम शयन तक के बीच का जूझ किस लिए, कमीज़ 800 को हो या 8000 की काम तो वही है दोनों का, एक दिन सब छूट ही जाना है।  लेकिन नहीं कुछ तो है जो आपको बाॅंधे रखता ...

राम कब आओगे?

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  हे राम!  वर्तमान करता ये प्रश्न है! गर वो आदर्श है  तो उठता क्यूं प्रश्न है? कृष्ण को राधा तो मिल जायेगी लेकिन अबकी जो आओगे  तो सीता ना पाओगे सीता सा अब साहस नहीं  किसी में जो वन में निभाए  परीक्षा तुमने एक बार मांगी  परिणाम कभी ना बताए परीक्षा अब राम की होगी एक नहीं , हर बार होगी जब जब कोई आदर्श बनेगा चुकाना उसे भी सब पड़ेगा राम, फिर कब आओगे? ले कर दाग खुद पर  सीता का स्त्रीत्व सिया है तीन मॉं के पुत्र हो कर एक सीता को अंत तक जिया है फिर ये प्रश्न क्यों खड़ा है? सारा संसार इसी में अड़ा है उत्तर देने कब आओगे? स्वर्ण मृग से स्वर्ण लंका तक शूर्प की नाक से अभिमानी के नाभी तक कितने दिन राम भू पर सोए थे? अपनी व्यथा बताने क्या आओगे? वन से वापस जब आए  लेकिन सीता फिर भी ना पाए अपना हक पाने कब आओगे? लेकिन अबकी जो आओगे तो सीता ना पाओगे

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 बाते महज़ चंद शब्द ही नहीं होते, ये जरूरी भी नहीं की बाते दो लोगों के बीच अगर हो रही हो तो दोनों तरफ सार्थक हो, अगर हो भी रही हो तो ज़रूरी नहीं कि दोनों के लिए बराबर मर्म पैदा करने वाली हो , मर्म पैदा हो भी जाए तो ज़रूरी नहीं कि सामने वाले के पास इतना वक्त हो, जैसे-तैसे दो घड़ी जोड़ भी ले कोई तो ज़रूरी नहीं कि फिर वो गंभीरता से ले, एक बार  को मान भी लें कि वो गंभीर है लेकिन किसी का बंधना जरूरी नहीं।  मैं ये ज़रा भी नहीं कह रहा कि आदमी स्वार्थी हो गया , भला ये कहने की चीज़ भी नहीं, बहरहाल, मैं तो ये सोच रहा था आदमी अगर मतलबी होता है, फिर भी उसे इतना नहीं गिरना चाहिए की अपनी ही बातें सुनाने वाला कोई चाहिए, मतलब सामने वाला बोलता जाए और दूसरी तरफ वाला सुनता रहे ; विदेशों में कई जगह मैंने सुना है की लोग अपना सारा काम खुद करते है, वहां स्लेवरी प्रणाली ही नहीं है और इसलिए वो किसी से उम्मीद की अपेक्षा तक भी नहीं करते, नॉर्वे कई दफा हैप्पी इंडेक्स में अव्वल रहा है शायद ये भी एक बड़ी वजह हो ; इन सब के विपरीत भारत में तो तंबाकू भी खाना होगा तो खुद नहीं, साथ वाला बना कर देता है ...