अभिनय


खुद को कितना भी बलपूर्वक व्यस्त किए रहोगे, बावजूद न सिर्फ मन बल्कि उस इंसान की खुशबू भी वातावरण में घुली हुई सी लगेगी, मानो वो अदृश्य होकर तुम्हारे बगल बैठा हो, मानो आपका भार बाॅंटने को अपनी जिम्मेवारी समझ कर्तव्य पूरा कर रहा हो , साथ ही लेकिन अदृश्य हो कर कड़ी सजा देना चाह रहा हो , सजा कहो या फिर शायद याद दिलाना चाह रहा हो लेकिन याद क्या दिलाना है? याद भी वो आते हैं जो कभी रहे हो। 

बात सिर्फ खुशबू तक नहीं रह गई है, यह उससे भी आगे बढ़कर उसके एहसास मानो चूरन जैसे खट्टे - मीठे दोनों भाव रह-रह कर विद्रोह कर बैठते हैं। काफी देर तक सोचने के बाद हल यही निकला कि बिना हल गड़ाए उपज संभव नहीं है, हल जब भी चलता है तो धरती को चीरता हुआ चलता है और जब तक यह ना हो तो खाद्यान्न पूर्ण हो ही नहीं सकता।

परंतु इतनी परिश्रम क्यों; अगर ये जगत् मिथ्या है तो फिर क्या फर्क पड़ता है किसी से, अकेले आए थे और अकेले ही चले जाना है, ये पैदा होने से अंतिम शयन तक के बीच का जूझ किस लिए, कमीज़ 800 को हो या 8000 की काम तो वही है दोनों का, एक दिन सब छूट ही जाना है। 

लेकिन नहीं कुछ तो है जो आपको बाॅंधे रखता है, वो जो आपके इस ज्ञान से भी बली है जो इस पर पट की भूमिका का निर्वाह करता है।

एक किस्से में शंकराचार्य जी के पीछे एक कुत्ता पड़ गया था, शंकराचार्य जी दौड़ रहे थे और कुत्ता दौड़ा रहा था, किसी ने आवाज़ देकर कहा की आखिर भाग क्यों रहे हो, तुम्हीं ने तो कहा था कि ये जग मिथ्या है तो ये कुत्ता भी मिथ्या हुआ, शंकराचार्य ने उत्तर देते हुए कहा कि हाॅं, लेकिन मैं दौड़ नहीं रहा हूॅं मैं सिर्फ़ "सांसारिक अभिनय" कर रहा हूॅं। परन्तु यह अभिनय भरतमुनि के अभिनय से बिल्कुल अलग है क्योंकि उसमें किन्हीं स्थाई भाव से रसो की प्राप्ति होती है और रस प्राप्ति ही अभिनय का लक्ष्य होता है। परंतु इस अभिनय के अंत में आपको कोई रस नहीं मिलेगा या उस परम शांति के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।

शिशु जब पैदा होता है तो वो शून्य होता है जैसे जैसे वो बढ़ता है तो उसका विकास होता है, विकास उसके मस्तिष्क का होता है और यही मस्तिष्क का विकास उसको एक शून्य से दूसरे शून्य की तरफ ले जाता है (कि ये संसार मिथ्या है, सब झूठ है) लेकिन बावजूद ये विकसित दिमाग इस बीच सफर में अपना एक किरदार खेलता (अभिनय करता है) है और शायद यही वो शक्ति है जो बाॅंध कर रखती है। 

तो क्या इस शक्ति पर विजय प्राप्त की जा सकती है? तमाम उलूल जुलूल से यही समझ आता है की शक्ति पर तो विजय प्राप्त की जा सकती है परंतु अपने अभिनय से भागना संभव नहीं है। यह अभिनय तो उनको भी करना पड़ा था और बार-बार करना पड़ा था दसवीं का इंतजार कलियुग में हो रहा है और शायद जब वो अपने अभिनय के लिए आयेंगे तब तक यह मंच और टेढ़ा हो जाए। 

मतलब ये अभिनय समय के साथ बदल जाता है? समय ही बदल जाता है तो ये अभिनय और मंच सदा एक से कैसे रह सकते हैं या यूं कहे कि यह अभिनय से अधिक "वर्तमान" है, अर्थात् अगर वर्तमान में हैं तो जीवित हैं और अभिनय को ईमानदारी से कर रहे हैं क्योंकि जो वर्तमान में नहीं है वो भूत है और वे जीवंत नहीं माने जायेंगे आप ऐसे तमाम उदाहरण देख सकते हैं, और जो भविष्य में खो गया है वो वर्तमान में पूर्ण नहीं है, और अपूर्ण हो कर पूर्ण की कामना करना कदापि तर्कसंगत नहीं है।

परंतु भविष्य ना सोचे आदमी तो रोटी को परेशान हो जाए शायद इसी सब के लिए "संतुलन" जैसे शब्द बने होंगे मगर इसका उचित संतुलन तौलेगा कौन कि हमें कितना भविष्य में रहना है और कितना वर्तमान में?.....लेकिन ये समस्या भी वर्तमान तक ही है क्योंकि एक दिन भूत, भविष्य की भी यात्राएँ शुरू हो जाएंगी (time travel machine) , यात्राएं तो पहले भी करते थे लेकिन तब सिर्फ श्रव्य होता था जिसका माध्यम ज्योतिष शास्त्र था और अब शायद दृश्य होगा और उसके बाद आदमी खुद ब खुद आने जाने लगे..... लेकिन बात फिर उसी बिंदु पर आकर टिक जायेगी की अगर सबको अपनी नियति पता हो जाए तो फिर वो अभिनय में भी विफल न हो जाए! या फिर उनके अंदर चोर घर कर जाए और एक मानवीय संवेदना का ह्रास होने लगे, आखिर सब कुछ जानते हुए भी कोई कितनी देर तक अभिनय करता रहेगा?

पता नहीं यह कितना सार्थक हो परंतु वक्त देने के लिए धन्यवाद। बैठा मैं भी सोच रहा हूॅं, अगर मुझे कुछ समझ आया तो ज़रूर साझा करूॅंगा और अगर आप कुछ सलाह देना चाहते हैं इस अबोध को तो नीचे लिखने का कष्ट करें।

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