अंत में......



गिरने, संभलने, चढ़ने 

औ फिर चढ़कर गिर जाने के

इस निरंतर धैर्य के कुचक्र के

अंत में खुद को गिरा ही पाओ 

तो जरूरत है उसको स्वीकारने की


मांगने, लड़ने, खोने

औ बचा खुचा छूट जाने के

इस निरंतर दान के रहस्य के

अंत में खुद को रिक्त ही पाओ 

तो जरूरत है उसको स्वीकारने की


फिर 

एक दिन तुम गिरोगे

अकड़ तो नहीं जाएगी

खामोश लेकिन हो जाओगे


नकारने, भागने, बदलने

औ एक वो "दूसरे मन" के

इस निरंतर विद्रोही शक्ति के

अंत में अंदर एक द्वंद्व ही पाओ

तो जरूरत है उसको स्वीकारने की


दबाने, छिपाने, भुलाने 

औ मुड़ मुड़ पीछे देखने के

इस निरंतर पलायन अभ्यास के

अंत में पश्चाताप में ही जाओ

तो जरूरत है उसको स्वीकारने की


फिर 

एक दिन जीत जाओगे 

उन थोथे दर्शनों को भी

जिसको कभी तुमने वॉट्सएप स्टेटस 

अ महफिलों के मेज़ पर परोसा था

एक दिन जल की धारा को भी 

उस कंक्रीट के बांध की सीमा को 

लांघ कर पार जाना ही पड़ता है,

जिसके बनने में तुमने 

गली से गलियारे तक शोर मचाया था

आज जब वक्त विदा लेने का आया है

तब तुम्हें मरम्मत का खयाल आया है

अपने अंत के इस धुंध में 

ज़रूरत है उसे ढूंढने की

उसे साधने की, उसे जगाने की

जो तुम्हारे ही भीतर बैठा है

फिर जानोगे कि अंत में अंत नहीं होता

.....

टिप्पणियाँ

  1. कुछ कविताएं मौन की अभिव्यक्ति देती है 🙏🍂

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  2. बहुत ही बेहतरीन निरंतर गतिशील रहिए

    जवाब देंहटाएं
  3. रूरत है उसको स्वीकारने की

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  4. तो जरूरत है उसको स्वीकारने की

    जवाब देंहटाएं

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