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द्वंद्व

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 यह द्वंद्व सिर्फ उसका नहीं जिसका कुछ भी नहीं, यह द्वंद्व तो उसका भी उतना ही है जिसने कुछ अलग माना ही नहीं, जिसने यह समझ रखा था कि साहित्य में स+हित है,  एक द्वंद्व उसका जिसने एक पहल की थी, द्वंद्व यही था कि दो एक जैसे दिखते मार्ग को समेट कर बताना और सामने वाले का द्वंद्व दूर हो सके की कौन सा मार्ग उचित है। परन्तु बावजूद इसके सामने वाले को द्वंद्व ने घेर रखा था, यह द्वंद दिखावटी प्रतिस्पर्धा का द्वंद था जिसके अलग अलग नाम हो सकते हैं - बाहरी द्वंद/भौतिक द्वंद/ आदि आदि ।  इस बाहरी द्वंद ने उसको एक देखने का नज़र न देकर दो मार्ग दिखलाए। जब किसी अयोग्य सत्ता के नीचे धड़ दबा हो तो उसके विवेक की सक्रियता आप ही निष्क्रिय हो जाती है। इसका प्रभाव बाहरी द्वंद्व पर दिखता है लेकिन इसका असर जो सामने आंतरिक द्वंद्व है उसको अछूता नहीं करता, अंतः द्वंद्व अब स-हित और स्व-हित के  दो धारी तलवार पर नंगे पैर हो गया है, परन्तु अब इसके समाधान की आवश्यकता नहीं।  एक द्वंद है जो आंतरिक है और एक वो जो मुखौटे बदल बदल कर अभिनय कर रहा है इस अभिनय में वो सः के मूल और   स्व के अहम् के...

अभिनय

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खुद को कितना भी बलपूर्वक व्यस्त किए रहोगे, बावजूद न सिर्फ मन बल्कि उस इंसान की खुशबू भी वातावरण में घुली हुई सी लगेगी, मानो वो अदृश्य होकर तुम्हारे बगल बैठा हो, मानो आपका भार बाॅंटने को अपनी जिम्मेवारी समझ कर्तव्य पूरा कर रहा हो , साथ ही लेकिन अदृश्य हो कर कड़ी सजा देना चाह रहा हो , सजा कहो या फिर शायद याद दिलाना चाह रहा हो लेकिन याद क्या दिलाना है? याद भी वो आते हैं जो कभी रहे हो।  बात सिर्फ खुशबू तक नहीं रह गई है, यह उससे भी आगे बढ़कर उसके एहसास मानो चूरन जैसे खट्टे - मीठे दोनों भाव रह-रह कर विद्रोह कर बैठते हैं। काफी देर तक सोचने के बाद हल यही निकला कि बिना हल गड़ाए उपज संभव नहीं है, हल जब भी चलता है तो धरती को चीरता हुआ चलता है और जब तक यह ना हो तो खाद्यान्न पूर्ण हो ही नहीं सकता। परंतु इतनी परिश्रम क्यों; अगर ये जगत् मिथ्या है तो फिर क्या फर्क पड़ता है किसी से, अकेले आए थे और अकेले ही चले जाना है, ये पैदा होने से अंतिम शयन तक के बीच का जूझ किस लिए, कमीज़ 800 को हो या 8000 की काम तो वही है दोनों का, एक दिन सब छूट ही जाना है।  लेकिन नहीं कुछ तो है जो आपको बाॅंधे रखता ...

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 बाते महज़ चंद शब्द ही नहीं होते, ये जरूरी भी नहीं की बाते दो लोगों के बीच अगर हो रही हो तो दोनों तरफ सार्थक हो, अगर हो भी रही हो तो ज़रूरी नहीं कि दोनों के लिए बराबर मर्म पैदा करने वाली हो , मर्म पैदा हो भी जाए तो ज़रूरी नहीं कि सामने वाले के पास इतना वक्त हो, जैसे-तैसे दो घड़ी जोड़ भी ले कोई तो ज़रूरी नहीं कि फिर वो गंभीरता से ले, एक बार  को मान भी लें कि वो गंभीर है लेकिन किसी का बंधना जरूरी नहीं।  मैं ये ज़रा भी नहीं कह रहा कि आदमी स्वार्थी हो गया , भला ये कहने की चीज़ भी नहीं, बहरहाल, मैं तो ये सोच रहा था आदमी अगर मतलबी होता है, फिर भी उसे इतना नहीं गिरना चाहिए की अपनी ही बातें सुनाने वाला कोई चाहिए, मतलब सामने वाला बोलता जाए और दूसरी तरफ वाला सुनता रहे ; विदेशों में कई जगह मैंने सुना है की लोग अपना सारा काम खुद करते है, वहां स्लेवरी प्रणाली ही नहीं है और इसलिए वो किसी से उम्मीद की अपेक्षा तक भी नहीं करते, नॉर्वे कई दफा हैप्पी इंडेक्स में अव्वल रहा है शायद ये भी एक बड़ी वजह हो ; इन सब के विपरीत भारत में तो तंबाकू भी खाना होगा तो खुद नहीं, साथ वाला बना कर देता है ...

सन्तुलन

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कुछ ख्वाबों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता, ख्वाब हमारी ख्वाहिशों से संबंध हैं; ख्वाहिशें लक्ष्य की यात्रा के पड़ाव अथवा दीर्घ विराम बन जाते हैं, जब हम गलत दिशा में भटके रहते हैं तो वो अपूर्ण पड़ाव (ख्वाब) हमें टूटे नज़र आते हैं, लेकिन वो कहीं न कहीं हमारे बेहतरी के लिए होते हैं ; कभी-कभी इसका क्षणिक आभास होता है और कभी-कभी उसी क्षणिक निराशा को हम दीर्घ बना कर समय नष्ट करते हैं। जीवन के यथार्थ से प्रताड़ित हर विफल व्यक्ति सतही ग्रंथों से धारणाएं बना लेता है, वो व्यक्ति जो इन निराधार धारणाओं से सहमत न हो उन्हें वो नादान और भौतिकवादी प्रतीत होता है और यह कदापि उचित नहीं है, क्षणिक अथवा त्वरित धारणा आपके विवेक को अवरुद्ध करती ही हैं साथ ही पुनः प्रयास की शक्ति को दुर्बल करती हैं, परंतु किन्हीं परिस्थितियों में सही उठते कदम पर भी डर का घना मेघ छाया रहता है तो ऐसे में उसकी तुलना लक्ष्य से कर वर्तमान के असमंजस पर भी पर विजय प्राप्त किया जा सकता है।

जीवन का अंतिम शर्त ?

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विचारों की जीत का जश्न मनाऊं   या बिखरे तिनके को मज़ाक से बचाऊं  खुद को विश्लेषित कर  सातत्य प्रवास को जाऊ  क्षण- क्षण जो ये त्याग है   शर्त ये अंतिम जीवन का है  अश्रुओं में धूमिल हो जाऊं  या विस्मृत सब कुछ कर जाऊं  दरकिनार कर, खुद को सिंचित कर  विषम सारे डगर जीत जाऊं  अकेला सफर ये तय करना है  शर्त ये अंतिम जीवन का है

परिमार्जन

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मैं कोई रचनाकार नहीं हूँ नित नए कटु अनुभवों को   शब्दों का मरहम लगाता हूँ   बदस्तूर जीवन संघर्षों को  स्याही से अनुस्यूत करता हूँ  दुर्निवार के पर्यवसान को   सातत्य मार्जन प्रयास करता हूँ   परिवर्तन के प्रबल विश्वास को   सकारात्मकता सः सिक्त करता हूँ   प्रचंड प्रषयन है संवृद्धि को  इसलिए चुनौतियों के बरक्स   अर्वाचीन उन्नयन होता हूँ

प्रकृति से आध्यात्म

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 भारतीय संस्कृतियों में ब्रह्म मुहूर्त को बहुत महत्वपूर्ण समयावधि मानी गयी है जो कि सुबह 4 बजे के आस-पास का समय होता है। लगभग यही समय था, मैं बाहर निकला तो आसमान बहुत ही साफ दिख रहा था, सुबह वाले जीवों की आवाज़, चारो तरफ लोगो के जोरदार सन्नाटे , तभी मेरी नज़र सामने एक वृक्ष पर पड़ी , नीचे से ही ऊपर की तरफ ज़रा सा धनुषाकार में उसका खड़ा होना , पत्तियों का आगे की तरफ से विनम्र भाव मे सज़दा करना , इसे देख मैं सोचने लगा ; क्या पेड़ भी कभी कुछ कहना चाहते होंगे? जानवर तो फिर भी अपने इशारो से , आवाज़ के माध्यम से अपने सुख या कष्ट को व्यक्त कर सकते हैं , परन्तु वृक्ष, पेड़ , पौधे , ये पूरा वनस्पति जगत, ये आकाश, ये समुद्र , क्या ये कभी बोल सकते हैं? अगर बात कर सकते है तो क्या तरीका होगा इनको समझने का?         ये जिज्ञासाएँ होना एक मनुष्य के महत्वपूर्ण लक्षण हैं। परन्तु ये जिज्ञासा थी या मौलिकता, भेद कर पाना कठिन है , ग़ौरतलब ये है कि जिज्ञासा का उद्गम आंखों से होता है; जब चीज़े हमारी आंखों से देखी जाती है तथापि हमारे मष्तिष्क में तरह-तरह के प्रश्न कौतुहल करना आरम्भ कर देतें है...

वीडियो कॉलिंग के बाद अगले कदम की उम्मीद

जहाँ महीनों लग जाते थे लोगो को अपने पत्र के जवाब पाने में , आज वीडियो कॉलिंग के माध्यम से पल भर में न सिर्फ वार्ता वरन् एक दूसरे को देख भी लेते है । ये तकनीक का कमाल नहीं तो और क्या है? जब-जब विज्ञान अपनी परीक्षण करता है तब-तब कुछ नया व रोचक जानने को मिलता है फिर वो चाहे अपने आकाश , पृथ्वी , अन्य ग्रह या तकनीक का ही क्षेत्र क्यों न हो ।               जिस तरह विज्ञान ने मंगल के लिए अपनी ताकत लगा दी उसी तरह तकनीक के क्षेत्र में भी वो कहीं आगे निकल चुका है , हाल ही में बंगलोर (भारत) के tone tag कम्पनी ने tone tag तकनीक को लॉन्च किया । विज्ञान की इस प्रगति को देखते हुए लगता है कि वो दिन भी दूर नहीं जब एक दूसरे को देखते हुए बात करते समय दूसरे तरफ की स्मेल भी महसूस हो।                      इस क्षेत्र में विज्ञान के परियोजनाओं के बारे में बहुत कुछ नहीं मालूम परंतु मेरे अपने विचार ये बताते है कि शायद इस तकनीक को लाने के लिए पहले दुनिया भर के समेल्स के सैंपल को एकत्रित किया जाएगा तथा उसको डाटा के रूप में...

काल्पनिकता की वास्तविकता

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                            साहित्य समाज का दर्पण है , सृजन के काल के समाज की राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक स्थिति को दर्शाता है। साहित्य के अंतर्गत- गद्य, पद्य, उन्यास, निबंध, आदि लेख आते है, किंतु मैं काल्पनिकता  को साहित्य की श्रेणी से जोड़ना उचित नहीं समझता क्योंकि ये विचार (काल्पनिकता एक विचार है) आगे (भविष्य) की विचारधारा है जिसका जन्म वक्त की नजाकत को देखते हुए होता है। वर्तमान की आवश्यकताओं से सम्पूर्ण होने के बाद ही मनुष्य आगे (भविष्य) की सोचता है जिसमे वर्तमान समाज की कोई परिभाषा नहीं दिखती, कुछ बुद्धजीवियों का ये तर्क भी है कि काल्पनिकता के जन्म का कारक ही वर्तमान स्थिति है , किंतु मेरी दृष्टि से काल्पनिकता अनिश्चितता से भरी होती है , काल्पनिकता का वास्तविकता में परिवर्तन ही इस विचार की पुष्टि है।