द्वंद्व
यह द्वंद्व सिर्फ उसका नहीं जिसका कुछ भी नहीं, यह द्वंद्व तो उसका भी उतना ही है जिसने कुछ अलग माना ही नहीं, जिसने यह समझ रखा था कि साहित्य में स+हित है, एक द्वंद्व उसका जिसने एक पहल की थी, द्वंद्व यही था कि दो एक जैसे दिखते मार्ग को समेट कर बताना और सामने वाले का द्वंद्व दूर हो सके की कौन सा मार्ग उचित है। परन्तु बावजूद इसके सामने वाले को द्वंद्व ने घेर रखा था, यह द्वंद दिखावटी प्रतिस्पर्धा का द्वंद था जिसके अलग अलग नाम हो सकते हैं - बाहरी द्वंद/भौतिक द्वंद/ आदि आदि ।
इस बाहरी द्वंद ने उसको एक देखने का नज़र न देकर दो मार्ग दिखलाए। जब किसी अयोग्य सत्ता के नीचे धड़ दबा हो तो उसके विवेक की सक्रियता आप ही निष्क्रिय हो जाती है। इसका प्रभाव बाहरी द्वंद्व पर दिखता है लेकिन इसका असर जो सामने आंतरिक द्वंद्व है उसको अछूता नहीं करता, अंतः द्वंद्व अब स-हित और स्व-हित के दो धारी तलवार पर नंगे पैर हो गया है, परन्तु अब इसके समाधान की आवश्यकता नहीं।
एक द्वंद है जो आंतरिक है और एक वो जो मुखौटे बदल बदल कर अभिनय कर रहा है इस अभिनय में वो सः के मूल और स्व के अहम् के द्वंद्व को पहचान नहीं पा रहा है।

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