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 बाते महज़ चंद शब्द ही नहीं होते, ये जरूरी भी नहीं की बाते दो लोगों के बीच अगर हो रही हो तो दोनों तरफ सार्थक हो, अगर हो भी रही हो तो ज़रूरी नहीं कि दोनों के लिए बराबर मर्म पैदा करने वाली हो , मर्म पैदा हो भी जाए तो ज़रूरी नहीं कि सामने वाले के पास इतना वक्त हो, जैसे-तैसे दो घड़ी जोड़ भी ले कोई तो ज़रूरी नहीं कि फिर वो गंभीरता से ले, एक बार  को मान भी लें कि वो गंभीर है लेकिन किसी का बंधना जरूरी नहीं। 

मैं ये ज़रा भी नहीं कह रहा कि आदमी स्वार्थी हो गया , भला ये कहने की चीज़ भी नहीं, बहरहाल, मैं तो ये सोच रहा था आदमी अगर मतलबी होता है, फिर भी उसे इतना नहीं गिरना चाहिए की अपनी ही बातें सुनाने वाला कोई चाहिए, मतलब सामने वाला बोलता जाए और दूसरी तरफ वाला सुनता रहे ; विदेशों में कई जगह मैंने सुना है की लोग अपना सारा काम खुद करते है, वहां स्लेवरी प्रणाली ही नहीं है और इसलिए वो किसी से उम्मीद की अपेक्षा तक भी नहीं करते, नॉर्वे कई दफा हैप्पी इंडेक्स में अव्वल रहा है शायद ये भी एक बड़ी वजह हो ; इन सब के विपरीत भारत में तो तंबाकू भी खाना होगा तो खुद नहीं, साथ वाला बना कर देता है और कभी कभी तो एक ही आदमी 5-6 लोगों के लिए जुगाड़ करता है, आदत इसीलिए खराब हो गई है - आदेश देना अंग्रेजो से सीखा, और दर्द अपने दे देते हैं , पीर जब अपने पार को ज़िद करता है तब इन भाई साहब को जिंदा पुतला चाहिए होता है जो इनको सुनता जाए, नवाबी इस कदर ओढ़ी हुई है कि एक दिन मुझसे कहने लगे कि बड़ा मन होता है मुझे कि किसी से खूब जी भर कर अपनी बाते कह कहने का, मैंने बहुत समझाया कि तूम समझदार हो , तुम्हें तो पता है ही कि ये काम हमलोगों का नहीं है, भला बताओ तो : बाते महज़ चंद शब्द नहीं होते, ये शब्द सबके वश के नहीं होते।

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