आत्महत्या (भाग 1)
शनैः शनैः मार्तण्ड (सूर्य) का दबदबा कम होता जा रहा था और निशापति की (चांद) जिम्मेदारी का बोझ बढ़ता जा रहा था , एक तरफ सूर्य देव माँ गंगा को प्रणाम करते हुए विनम्रता में झुके जा रहे थे और दूसरी तरफ चंद्रदेव ने कार्यभार संभालने के लिए उठते हुए माँ की गोद में समा गए, मानों जैसे किसी तराजू के एक पलझे पर सूर्य देव हों और दूसरे पर चंद्रदेव और तराजू पश्चिम की ओर झुक जाने को तैयार था मानों यही न्याय है और है भी ।
परंतु इस भोगलोक में न्याय तब माना जाता है जब तराजू के पलड़े बराबर हों और न्याय देवी की आँखों पर पट्टी पड़ी हो, लेकिन पट्टी न्याय देवी पर ही क्यूँ ? क्यों सिर्फ स्त्री के आँख बंद कर लेने से ही सब ठीक हो जाए ? या शायद इसी वजह से स्त्री की ही सुनवाई है ! काश कोई न्याय देवता होता तो पुरुषों की भी सुन लेता , यही सब सोचते हुए विवेक सूर्य देव की तरह ही किसी सोच में डूबता जा रहा था उसे नदियों की कल कल के शोर में भी शांति महसूस हो रही थी । थोड़ी ही दूर में नदी के बाएं तरफ बने पुल से एक तेज रफ्तार ट्रेन हॉर्न बजाते हुए गुज़र रही थी उस आवाज़ ने विवेक का यज्ञ भंग किया और विवेक ने अचानक आँखें खोल ली, मानों ट्रेन ने अपनी रफ्तार में वक्त की रफ्तार का प्रतीक बनने का असफल साहस किया हो । विवेक ने चारों तरफ नजर दौड़ाई और फिर जब समय का विचार मात्र किया तो उसकी जेब से एक आवाज़ आई “इट्स एट फॉर्टी नाइन पीएम” ।
काफी देर हो जाने से चारों तरफ शून्य सा अंधेरा छा गया था, न चाहते हुए भी विवेक को घर की ओर चलना ही पड़ा , घर आते - आते उसे 23:27 हो गए , जब वो घर पहुँचा तो रोज की तरह पिता (दिनेश) जी आगे वाले कमरे में थे , सोये तो नहीं थे परंतु आंखे लिलोर रहे थे । विवेक की पत्नी (विनीता) और उससे जना रजत अपने कमरे में सो रहे थे , माँ (शांति) रसोई के सामने मेज पर परोस कर ढ़के हुए खाने को पहरा देने के लिए सामने कुर्सी पर टिकी थी, विवेक की आहट से शांति चैतन्य हुई और नींद के सम्मोहन में अपने कमरे में चली गईं । खाना मेज़ पर ही रखा रहा ।
आते ही विवेक कमरे की ओर गया तो उसे विनीता के सिसकने की आवाज़ आ रही थी मानों किसी गहरे मानसिक संताप से गुजर रही हो, विवेक ने उसे अनसुना करते हुए बिस्तर के बगल के दराज में से सिगरेट की पैकेट में से एक सिगरेट निकाली और कमरे से बाहर चला गया ।
कमरे के छज्जे पर खड़े हो कर विवेक ने जैसे ही कश खींचना शुरू किया तुरंत उसके AI से कुछ आवाज़े आई –
AI – आज की तय की गई से 3 गुना अधिक हो गया है ।
विवेक – तुमने ये तो देख लिया, क्या विनीता को देखा आज , उसने तो आज सारी हदे पार कर दी , तुम क्या सोचते हो इसका रजत पर क्या असर पड़ेगा ? मेरे और विनीता की मुझे अब परवाह नहीं लेकिन रजत के बारे में...
AI – तुम्हारी बात मैं समझ सकती हूँ विवेक लेकिन इसका उपाय यह धुआँ तो नहीं है ।
विवेक – तुम चुप ही रहो, मशीन हो जितना बोला जाए उतना ही करो ।
इतना कहने के साथ विवेक ने उसको ऑफ कर दिया और सिगरेट बुझा कर अंदर चला गया । बिस्तर पर यूं पड़ा जैसे खुद को कहीं छिपा लेना चाहता हो ।
विनीता और विवेक को शादी किए 6 वर्ष हो गए थे, परिणय की वो मनोहर सुगंध अब कहीं बादलों में उड़ चली थी और बादलों के पीछे - पीछे विच्छेद की दुर्गंध पूरे घर में भर गई थी । सुगंध और दुर्गंध में आदत मात्र का फर्क होता है, निरंतर दुर्गंध को साफ न किया जाए तो आदत में शामिल हो जाता है जैसे आज विनीता और विवेक की जिंदगी में विच्छेद रूपी दुर्गंध ।
शांति को घर की स्थिति समझ में आती थी कि विनीता के लिए ये रिश्ता अब असह्य हो गया था लेकिन कहीं न कहीं विनीता के अंदर दिनेश और शांति के प्रति आदर और दया थी और उसका मानना था की उनके प्रति यह उसकी जिम्मेदारी भी है । साथ ही शांति विवेक के इस क्लेश भरे जीवन से भी चिंतित रहती और ईश्वर से उसके लिए प्रार्थना भी करती ।
कभी – कभी विनीता का जी चाहता कि दूर वीराने में चली जाए और फिर कभी वापस न आए , उसे जब भी ऐसा महसूस होता तो वो विवेक के AI से अपनी बाते करती क्योंकि यहाँ वो किसी से जाहीर करना नहीं चाहती और दूसरी बात यह थी कि विवेक से शादी के लिए वो अपने माँ – बाप का विरोध कर के आई थी इस वजह से उनसे कुछ कहना उसे बिल्कुल भी न्यायसंगत नहीं लगता ।
एक रात जब विनीता सोने की कोशिश कर रही थी तो अचानक से उसके फोन पर नोटिफ़िकेशन की आवाज आई, उसने फोन देखा तो पता चल की AI ने कुछ भेजा है, उसने उस विडिओ में देखा कि एक आदमी ने पुल से कूद कर खुदखुशी कर ली , विनीता अचानक घबरा गई उसने तुरंत फोन को रख दिया और AI को ऑफ कर के सोते हुए रजत को देखने लगी फिर खुद सोने की कोशिश करने लगी क्योंकि शादी के 2.5 साल बाद से ही वो विवेक का इंतज़ार करना छोड़ चुकी थी विवेक की मर्जी से ।
विवेक को इस संसार से ऐसा मोह भंग हुआ था कि उसे बस रजत के साथ दिनेश और शांति की परवाह थी फिर उसे ज़रा भी फर्क नहीं पड़ता कि दुनिया इधर की उधर हो जाए । विवेक और विनीता में बाते बहुत कम होती थी जब किसी बात को लेकर तनातनी होती तो दोनों कोशिश करते कि आवाज़ कमरे से बाहर न जाने पाए ।
विवेक ने अपने काम में सहायता के लिए इस AI को मंगाया था और काफी मदत भी मिलती थी, विवेक सोचता जब तक माँ – बाप की छाया है तब तक उनके सामने सब कुछ ढंग से चलता रहे इसके लिए विवेक ने खुद को इस AI के हवाले कर दिया था, उसका हमेशा मन चाहता कि वो इस AI को मानव रूप दे सके, इसके लिए उसने कुछ ज़रूरी सामान भी मँगवाए थे ।
एक दिन विवेक फिर देर रात नदी के पास पहुँच गया था आज वो उसी बाएं तरफ के रेलवे पुल पर बैठकर सिगरेट का कश ले रहा था, आज वो खाली हाथ आया था, विवेक बीती बातों को याद करता और सोचता कि क्या फिर से जिंदगी की शुरुआत की जा सकती है? क्या सब कुछ पहले जैसा किया जा सकता है? कई बार उसे आत्महत्या का ख्याल आता लेकिन फिर वो उस विचार पर विजय प्राप्त कर लेता है और वह अपनी बर्बादी को स्वीकार कर लेता, इन्हीं की आवृत्ति से विवेक के सर में बहुत दर्द हो रहा था जैसे किसी ने बहुत भारी लोहा रखा हो । विवेक ने अपने दाएं हाथ की तर्जनी उंगली से सिगरेट को झटका और सुलगती सिगरेट को नदी के हवाले कर दिया । इसी उधेड़ – बुन में सोचता हुआ फिर वो कहीं खो गया और उसकी आखें बंद हो गई ।
पुल पर फिर एक ट्रेन दौड़ी चली आ रही थी , विवेक पटरी से दूर किनारे बैठा खोया हुआ था चालक ने अपनी जिम्मेदारी समझते हुए सचेत करने के उद्देश्य से विवेक के पास पहुँच कर अचानक एक जोर – दार हॉर्न बजाया लेकिन हुआ कुछ अलग, अचानक आवाज से विवेक घबरा गया और खुद को संभाल न सका ।
कुछ ही क्षणों में विवेक ने आखें खोली और उसके सामने जो नज़ारा था उसे देख कर उसके होश ऐसे उड़े जैसे उसके पैरों के नीचे जमीन ही न हो और उसने देखा कि सच में कोई जमीन नहीं है , ........
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