संदेश

अभिनय

चित्र
खुद को कितना भी बलपूर्वक व्यस्त किए रहोगे, बावजूद न सिर्फ मन बल्कि उस इंसान की खुशबू भी वातावरण में घुली हुई सी लगेगी, मानो वो अदृश्य होकर तुम्हारे बगल बैठा हो, मानो आपका भार बाॅंटने को अपनी जिम्मेवारी समझ कर्तव्य पूरा कर रहा हो , साथ ही लेकिन अदृश्य हो कर कड़ी सजा देना चाह रहा हो , सजा कहो या फिर शायद याद दिलाना चाह रहा हो लेकिन याद क्या दिलाना है? याद भी वो आते हैं जो कभी रहे हो।  बात सिर्फ खुशबू तक नहीं रह गई है, यह उससे भी आगे बढ़कर उसके एहसास मानो चूरन जैसे खट्टे - मीठे दोनों भाव रह-रह कर विद्रोह कर बैठते हैं। काफी देर तक सोचने के बाद हल यही निकला कि बिना हल गड़ाए उपज संभव नहीं है, हल जब भी चलता है तो धरती को चीरता हुआ चलता है और जब तक यह ना हो तो खाद्यान्न पूर्ण हो ही नहीं सकता। परंतु इतनी परिश्रम क्यों; अगर ये जगत् मिथ्या है तो फिर क्या फर्क पड़ता है किसी से, अकेले आए थे और अकेले ही चले जाना है, ये पैदा होने से अंतिम शयन तक के बीच का जूझ किस लिए, कमीज़ 800 को हो या 8000 की काम तो वही है दोनों का, एक दिन सब छूट ही जाना है।  लेकिन नहीं कुछ तो है जो आपको बाॅंधे रखता ...

राम कब आओगे?

चित्र
  हे राम!  वर्तमान करता ये प्रश्न है! गर वो आदर्श है  तो उठता क्यूं प्रश्न है? कृष्ण को राधा तो मिल जायेगी लेकिन अबकी जो आओगे  तो सीता ना पाओगे सीता सा अब साहस नहीं  किसी में जो वन में निभाए  परीक्षा तुमने एक बार मांगी  परिणाम कभी ना बताए परीक्षा अब राम की होगी एक नहीं , हर बार होगी जब जब कोई आदर्श बनेगा चुकाना उसे भी सब पड़ेगा राम, फिर कब आओगे? ले कर दाग खुद पर  सीता का स्त्रीत्व सिया है तीन मॉं के पुत्र हो कर एक सीता को अंत तक जिया है फिर ये प्रश्न क्यों खड़ा है? सारा संसार इसी में अड़ा है उत्तर देने कब आओगे? स्वर्ण मृग से स्वर्ण लंका तक शूर्प की नाक से अभिमानी के नाभी तक कितने दिन राम भू पर सोए थे? अपनी व्यथा बताने क्या आओगे? वन से वापस जब आए  लेकिन सीता फिर भी ना पाए अपना हक पाने कब आओगे? लेकिन अबकी जो आओगे तो सीता ना पाओगे

.....

 बाते महज़ चंद शब्द ही नहीं होते, ये जरूरी भी नहीं की बाते दो लोगों के बीच अगर हो रही हो तो दोनों तरफ सार्थक हो, अगर हो भी रही हो तो ज़रूरी नहीं कि दोनों के लिए बराबर मर्म पैदा करने वाली हो , मर्म पैदा हो भी जाए तो ज़रूरी नहीं कि सामने वाले के पास इतना वक्त हो, जैसे-तैसे दो घड़ी जोड़ भी ले कोई तो ज़रूरी नहीं कि फिर वो गंभीरता से ले, एक बार  को मान भी लें कि वो गंभीर है लेकिन किसी का बंधना जरूरी नहीं।  मैं ये ज़रा भी नहीं कह रहा कि आदमी स्वार्थी हो गया , भला ये कहने की चीज़ भी नहीं, बहरहाल, मैं तो ये सोच रहा था आदमी अगर मतलबी होता है, फिर भी उसे इतना नहीं गिरना चाहिए की अपनी ही बातें सुनाने वाला कोई चाहिए, मतलब सामने वाला बोलता जाए और दूसरी तरफ वाला सुनता रहे ; विदेशों में कई जगह मैंने सुना है की लोग अपना सारा काम खुद करते है, वहां स्लेवरी प्रणाली ही नहीं है और इसलिए वो किसी से उम्मीद की अपेक्षा तक भी नहीं करते, नॉर्वे कई दफा हैप्पी इंडेक्स में अव्वल रहा है शायद ये भी एक बड़ी वजह हो ; इन सब के विपरीत भारत में तो तंबाकू भी खाना होगा तो खुद नहीं, साथ वाला बना कर देता है ...

माघी स्नान

चित्र
(प्रस्तुत कथा कल्पना पर आधारित है, कृपया इसको व्यक्तिगत ना समझें। समाज में रहने के नाते मैनें भी शब्दों को संतुलित ही रखा है बाकी आप लोग समझदार हैं।) जीवन में तपस्या ही एक मात्र साधन है लक्ष्य प्राप्ति का, चाहे वो आध्यात्मिक हो, धार्मिक हो या शिक्षा के लिए हो और जहां इनका संगम देखने को मिले वो क्षेत्र प्रयाग संगम है। शिक्षा के उद्देश्य से शुभम भी स्नातक के साथ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए अपने क्षेत्र बलिया से दूर प्रयागराज में एक छोटे से कमरे में  सिमट गया, ताकि आगे विस्तार कर सके। संगम में माघ के स्नान का महत्व क्या है ये किसी को बताने की ज़रूरत नहीं है और शायद इसीलिए शुभम के दूर के दूर के रिश्तेदार भी बिना बताए ही प्रयाग आ पहुँचे, स्टेशन पर उतर कर उन्होंने अपने बड़े से भारी बैग को नीचे न रखने के कारण दोनों पैरों के बीच में ही दबा कर खड़े हो गए, बाएं हाथ के सहारे पैंट से मोबाइल फोन निकाला और दूसरे हाथ से जैकेट खोल कर एक पर्चा निकाला जिसमें एक नंबर लिखा हुआ था। सुबह के ठीक 4 बज कर 20 मिनट पर शुभम का फोन बजने लगा, अभी थोड़ी ही देर पहले सोया था, जैसे तैसे नज़र जब फोन की...

सन्तुलन

चित्र
कुछ ख्वाबों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता, ख्वाब हमारी ख्वाहिशों से संबंध हैं; ख्वाहिशें लक्ष्य की यात्रा के पड़ाव अथवा दीर्घ विराम बन जाते हैं, जब हम गलत दिशा में भटके रहते हैं तो वो अपूर्ण पड़ाव (ख्वाब) हमें टूटे नज़र आते हैं, लेकिन वो कहीं न कहीं हमारे बेहतरी के लिए होते हैं ; कभी-कभी इसका क्षणिक आभास होता है और कभी-कभी उसी क्षणिक निराशा को हम दीर्घ बना कर समय नष्ट करते हैं। जीवन के यथार्थ से प्रताड़ित हर विफल व्यक्ति सतही ग्रंथों से धारणाएं बना लेता है, वो व्यक्ति जो इन निराधार धारणाओं से सहमत न हो उन्हें वो नादान और भौतिकवादी प्रतीत होता है और यह कदापि उचित नहीं है, क्षणिक अथवा त्वरित धारणा आपके विवेक को अवरुद्ध करती ही हैं साथ ही पुनः प्रयास की शक्ति को दुर्बल करती हैं, परंतु किन्हीं परिस्थितियों में सही उठते कदम पर भी डर का घना मेघ छाया रहता है तो ऐसे में उसकी तुलना लक्ष्य से कर वर्तमान के असमंजस पर भी पर विजय प्राप्त किया जा सकता है।

जीवन का अंतिम शर्त ?

चित्र
विचारों की जीत का जश्न मनाऊं   या बिखरे तिनके को मज़ाक से बचाऊं  खुद को विश्लेषित कर  सातत्य प्रवास को जाऊ  क्षण- क्षण जो ये त्याग है   शर्त ये अंतिम जीवन का है  अश्रुओं में धूमिल हो जाऊं  या विस्मृत सब कुछ कर जाऊं  दरकिनार कर, खुद को सिंचित कर  विषम सारे डगर जीत जाऊं  अकेला सफर ये तय करना है  शर्त ये अंतिम जीवन का है

परिमार्जन

चित्र
मैं कोई रचनाकार नहीं हूँ नित नए कटु अनुभवों को   शब्दों का मरहम लगाता हूँ   बदस्तूर जीवन संघर्षों को  स्याही से अनुस्यूत करता हूँ  दुर्निवार के पर्यवसान को   सातत्य मार्जन प्रयास करता हूँ   परिवर्तन के प्रबल विश्वास को   सकारात्मकता सः सिक्त करता हूँ   प्रचंड प्रषयन है संवृद्धि को  इसलिए चुनौतियों के बरक्स   अर्वाचीन उन्नयन होता हूँ