संदेश

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  मुझे गर्व है- विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता भारत में रही जो अपने काल परिधि में चरम तक पहुँच कर क्रमानुसार काल मे समाहित हो गई. लेकिन कोई भी सभ्यता शीघ्र ही फलित नहीं होती , उसके बनने में मनुष्य का विवेक , आकांक्षा, व उसकी कल्पना शक्ति का मिश्रण होता है. अपनी इन्हीं शक्तियों के इस्तेमाल के लिये उसे मेहनत रूपी ईंधन की आवश्यकता पड़ती है, जब कोई भी मनुष्य अपने अथक प्रयास व श्रम के माध्यम से अपने व्यक्तित्व व ज्ञान (कोई भी उपलब्धि) को अर्जित करने का प्रयास करता है तो उसको अनेक तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. ये अवरोध उसी प्रकार है जिस प्रकार इन अवरोधों में भी हमको मित्र, परिवार, समाज से सहायता प्राप्त होती रहती है , यही छोटी छोटी मदद कभी कभी रिक्तियों को भरने का कार्य करती हैं.  अगर गणितीय चेत से समझा जाए तो ये तमाम अवरोध उन तमाम छोटे सहायताओं के सामने नगण्य प्रतीत होते हैं.  महत्वपूर्ण यह नहीं है कि ये अवरोध नगण्य है , महत्वपूर्ण यह कि अंततः जब जीत का स्वाद मिले तो उसमें पान की तरह परिपक्वता की  लालिमा चमकती रहनी चाहिए.  मेरे ऐसे सुलझे व जिद्दी मित्रों पर...

ज़िन्दगी : एक पहिया (भाग 1)

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  (चरित्र , कथानक आदि सब काल्पनिक है , किसी व्यक्ति विशेष से सम्बंध संयोग मात्र हैं) फोन खोलेते ढेरों नोटिफिकेशन में एक कमाल की खबर मिली, लम्बे इंतेज़ार के बाद भारतीय रेलवे ने बाकी ट्रेनों को भी हरी झंडी दिखाने का निर्णय लिया, इस निर्णय से भारत के पहिये को फिर गति पकड़ने की उम्मीद मिली। भारतीय रेलवे भारत की अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा हिस्सा है जिससे भारत का हर वर्ग लाभान्वित है इसके दूसरे पक्ष की बात की जाए तो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक इसकी यात्रा का स्वाद मानसपटल पर चिरकाल संजोया है और कुछ लोगो के लिए ये यादे जीवन का आधार बन जाती है...       खबर अभी खत्म नहीं हुआ था कि नीलेश ने अपना फोन रख कर किचन की तरफ चल दिया क्योंकि उसे देर हो रही थी, नीलेश IT company में सेल्स विभाग में था, जिस वजह से उसे सर्वे और रिपोर्ट के चक्कर मे अक्सर यात्रा करनी पड़ती थी , " आए दिन की यात्रा से जीवन पहिये  जैसा गोल-गोल घूमने लगा है " हालाँकि अब उसका प्रमोशन हो चुका है , इन यात्राओं की उसको ज़रुरत नहीं। नौकरी लग जाना उसके ऊपर समय से तो फिर बात ही क्या है भारत के मध्य वर्ग मे न...

प्रकृति से आध्यात्म

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 भारतीय संस्कृतियों में ब्रह्म मुहूर्त को बहुत महत्वपूर्ण समयावधि मानी गयी है जो कि सुबह 4 बजे के आस-पास का समय होता है। लगभग यही समय था, मैं बाहर निकला तो आसमान बहुत ही साफ दिख रहा था, सुबह वाले जीवों की आवाज़, चारो तरफ लोगो के जोरदार सन्नाटे , तभी मेरी नज़र सामने एक वृक्ष पर पड़ी , नीचे से ही ऊपर की तरफ ज़रा सा धनुषाकार में उसका खड़ा होना , पत्तियों का आगे की तरफ से विनम्र भाव मे सज़दा करना , इसे देख मैं सोचने लगा ; क्या पेड़ भी कभी कुछ कहना चाहते होंगे? जानवर तो फिर भी अपने इशारो से , आवाज़ के माध्यम से अपने सुख या कष्ट को व्यक्त कर सकते हैं , परन्तु वृक्ष, पेड़ , पौधे , ये पूरा वनस्पति जगत, ये आकाश, ये समुद्र , क्या ये कभी बोल सकते हैं? अगर बात कर सकते है तो क्या तरीका होगा इनको समझने का?         ये जिज्ञासाएँ होना एक मनुष्य के महत्वपूर्ण लक्षण हैं। परन्तु ये जिज्ञासा थी या मौलिकता, भेद कर पाना कठिन है , ग़ौरतलब ये है कि जिज्ञासा का उद्गम आंखों से होता है; जब चीज़े हमारी आंखों से देखी जाती है तथापि हमारे मष्तिष्क में तरह-तरह के प्रश्न कौतुहल करना आरम्भ कर देतें है...

लघुकथा #01

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मैं समझाना तो बहुत चाहता था, मगर ना जाने क्यों कुछ बोल नहीं पा रहा था. अश्कों को तो कब का किसी को बेचा हुआ कह दिया था। बुरा उनका गुस्सा होना नहीं, शायद उनका लापरवाह होना लग रहा था , बहुत हिम्मत कर के बोलने की कोशिश की तब तक फोन कट गया । उनके ख़ंजर से शब्द की तरह वो भी चले गए मुझे बींध कर, इसी घबड़ाहट से ना जाने कब मेरी नींद खुल गई। नींद के खुलने के साथ खुद को ज़ोर से काटा..... काश ये सच में सपना ही होता।

वो लम्हा अब भी जीता है

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दफन हुए वो वक्त तो क्या उन्हें याद कर ये आँखे भरता है, यादों के किसी कोने में वो लम्हा अब भी जीता है। वक्त का है बस यही बहाना नहीं कभी ठहरता है, खींची थी जो आँखों मे तस्वीरें देख उन्हें बस हिम्मत भरता है । वो लम्हा अब भी जीता है। जीता जा हर पल जो सीखा है कैद कर उन बिसरों को जो बीता है, छू कर कोने में, उसी को तू कभी हँसता तो रोता है। कल की फिक्र में तू आज खोता है तेरी जिंदगी से तेज वक्त जीता है, पनाह दे कहीं कोने में धूप में छाव सा रहता है देख कैसे वो हमें जोड़ता है। वो लम्हा अब भी जीता है।

हे मनुष्य...

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कहता खुद को विज्ञान रचयिता विचार कोई अलग रच ले प्रकृति पर तेरा वश नहीं खुद को वश में कर ले खतरे में आज मानव जाति फर्ज़ हर कोई समझ ले हे मनुष्य , बात इतनी सी समझ ले

काश... ये भी सम्भव होता!

बातों से गर बुरा लगे तो फिर हक ही क्या ? समझे न ज़ज्बातो को वो दोस्त ही क्या ? सब औपचारिक ही हो जाते गर!... काश....ये भी सम्भव होता! गर मैं ही गिरा , तुम ना उठाए ज़रूरत पर तुमको हम ना समझाए फिर ये एहसास ही क्या ? माना संवेदनशील हूँ मैं पर मुझे ना झेल पाए तो आपकी वेदना ही क्या ? इस हृदय की निचोड़ भी देख पाओ तुम काश......ये भी सम्भव होता! लगती होंगी महफ़िले आपकी सरे बाज़ार लेकिन सुकू भी कभी बिका करते है क्या? हाँ, हूँ मै नादा किये होंगे दोष मैने हज़ार परन्तु गुनाहों से मेरे जज़्बातों का तोल है क्या ? मेरी जगह पर भी रह कर देखे होते काश.... ये भी सम्भव होता! गलतियाँ उनसे(भगवान) भी हो जाती उनके भी ऊपर कोई है क्या ? ये (दोस्ती) शब्द मात्र नहीं, भावनाओं के है तार करता अभिषेक नित उन स्मृतियों की इसी में होउ गौरव मैं बारम-बार नहीं बाकी कोई गुमान आदर्श बनने की समय निकाल पढ़ लिए होते ये खुली किताब काश.....ये भी सम्भव होता!