ज़िन्दगी : एक पहिया (भाग 1)
(चरित्र , कथानक आदि सब काल्पनिक है , किसी व्यक्ति विशेष से सम्बंध संयोग मात्र हैं)
फोन खोलेते ढेरों नोटिफिकेशन में एक कमाल की खबर मिली, लम्बे इंतेज़ार के बाद भारतीय रेलवे ने बाकी ट्रेनों को भी हरी झंडी दिखाने का निर्णय लिया, इस निर्णय से भारत के पहिये को फिर गति पकड़ने की उम्मीद मिली। भारतीय रेलवे भारत की अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा हिस्सा है जिससे भारत का हर वर्ग लाभान्वित है इसके दूसरे पक्ष की बात की जाए तो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक इसकी यात्रा का स्वाद मानसपटल पर चिरकाल संजोया है और कुछ लोगो के लिए ये यादे जीवन का आधार बन जाती है...
खबर अभी खत्म नहीं हुआ था कि नीलेश ने अपना फोन रख कर किचन की तरफ चल दिया क्योंकि उसे देर हो रही थी, नीलेश IT company में सेल्स विभाग में था, जिस वजह से उसे सर्वे और रिपोर्ट के चक्कर मे अक्सर यात्रा करनी पड़ती थी , "आए दिन की यात्रा से जीवन पहिये जैसा गोल-गोल घूमने लगा है" हालाँकि अब उसका प्रमोशन हो चुका है , इन यात्राओं की उसको ज़रुरत नहीं। नौकरी लग जाना उसके ऊपर समय से तो फिर बात ही क्या है भारत के मध्य वर्ग मे नौकरी का मतलब ही शादी होती है, और शादी के लिए नौकरी , भले ही आप मानसिक रूप से तैयार हों या नहीं । नीलेश ने भी कम उम्र में खुद को साबित किया था जब वो पहली नौकरी में था जिस वजह से उसके माँ-बाप भी जल्द ही शादी की तैयारियों में लग गए।
सामने टेबल पर जूस रखा हुआ था, दरवाज़े की तरफ ही बड़ी सी खिड़की थी जिसके पार प्रकृति का दृश्य, बाहर देखने पर सामने ही दो पक्षी आपस में देर से लड़ रहे थे, लेकिन बारिश के आसार की वजह से दोनों छज्जे के ओट में साथ बैठ गए मानो कोई झगड़ा हुआ ही न हो।
कमर को सीधी करते हुए नीलेश ने कहा - आपको बारिश पसन्द है?
संवेदिता- क्या तुमने उन पक्षियों को देखा ? कैसे दोनों अभी लड़ रहे थे और अब एक दूसरे की मदद कर रहे हैं ।
नीलेश - हाँ, वाकई , कभी कभी गैर-परम्परा का मतलब नई उम्मीद भी हो सकती है।
संवेदिता- शादी को लेकर क्या सोचते हो ?
जूस को टेबल पर रखते हुए नीलेश ने बोला- अभी काम नया है तो काम और समय मे मध्यस्थता में दिक्कत है , लेकिन बहुत जल्द ही दूसरे जगह काम मिल जाएगा जिससे यात्रा इतनी नहीं करनी पड़ेगी।
संवेदिता को उम्मीद थी कि कोई विचारशील जवाब मिलेगा, लेकिन शायद नीलेश रिश्तों में अभी कच्चा है, यही सोच कर उसने बात को वही काट दी और फिर खिड़की की तरफ देखने लगी
नीलेश- आपने क्या सोचा है ?
संवेदिता- सोच रहीं हूँ कोई ठीक ठाक नौकरी में लग जाऊँ। बड़ा ही मुश्किल होता है लड़कियों को बिना नौकरी अकेले रहना।
नीलेश- क्या आप इस शादी के लिए तैयार हैं?
संवेदिता- सौरभ ने बड़ी उम्मीदें दी थी ,उसके बाद अब तक खुद को समझाया, बेशक खिड़की के बाहर की दुनिया बड़ी रंगीन है लेकिन संघर्ष कहीं ज़्यादा है....
संवेदिता की बातों से नीलेश को अपने एक दोस्त विपुल की याद आई जिसको इसी तरह सामाजिक बीमारी ने निगल लिया था। अपने काम से ज्यादा बातो में नीलेश की रुचि नहीं लगती थी लेकिन अभी विपुल और संवेदिता के भाव तौल रहा था , क्या तकरार रिश्तों में होती है या ये खुद में होती है जिसका असर रिश्तों पर पड़ता है? इसी सोच के उपज से उसे सहानुभूति देना उचित लगा। संवेदिता ने भी इस सहयोग को सकारात्मक समझा। संवेदिता हमेशा से ही सकारात्मक दृष्टि की पक्षधर रही है इसी वजह से उसे उम्मीद होती थी कि "तकरार का सुलह चीज़ों को और मज़बूत बना देता है" ।
शादी हुए तो 1 वर्ष से ज्यादा हो गया आज रेलवे की परीक्षाओं के परिणाम घोषित हुए जिसने संवेदिता के नौकरी की ख्वाहिश पूरी हुई, दोनों ही बहुत खुश थे । नीलेश भी अब स्थिर था तो शाम को संवेदिता को लेने वो स्टेशन खुद जाया करता था , धीरे - धीरे एक नियम जैसा हो गया था , शाम को संवेदिता को लेने नीलेश स्टेशन जाता और वहाँ दोनों एक बेंच पर बैठ कर घण्टो बातें करते और फिर घर आते। ये बेंच और स्टेशन दोनों के लिए कहीं कीमती हो चुका था , इतनी यादें यहाँ सँजोये गए थे जितना किसी तीर्थस्थल में मुरादे।
लम्बे समय के बाद दोनों के काम मे विलम्ब होने लगा जिसकी वजह से दोनों अब देर घर पहुँचते लेकिन संवेदिता को अब स्टेशन से अकेले घर आना पड़ता। भारतीय गाड़ियों के देरी के वजह से संवेदिता का वक्त बेवक्त हो गया , नीलेश ने उसे इस बेवक्त के लिए टोका
नीलेश- सरकार तो 8 घण्टे से ज्यादा समय नहीं लेती , बाकी समय कहाँ निकल जाता है?
संवेदिता- मौसम की वजह से गाड़ियाँ देर से आती है अब, अंतिम गाड़ी की रिपोर्ट जमा करते करते वक्त लग जाता है
(जल्दी जल्दी चाय बनाते हुए बोली)
वक्त के साथ नीलेश संकोच वश कई बात मन मे ही रखता लेकिन उसे अब ये बेवक्ती परेशान करने लगी उसे रह रह कर सौरभ नाम की याद आती जो अदृश्य छवि है , एक शाम संवेदिता के आते ही उसने सारा विषाद निकाल दिया उसके बाद संवेदिता ने भी कुछ कम नहीं कहा, दोनों उस रात बिना खाए ही सो गए।
चिंतन भी व्यस्तता से स्वतंत्र रहना चाहता है , शायद इसी व्यस्तता ने एक दूसरे को मौका नहीं दिया जिस वजह से एक वो दिन भी था जब दोनों ने निर्णय किया इस परतंत्र से स्वतन्त्र होने का।
दोनों को अलग हुए 6 महीने बीत चुके थे, किसी का किसी से कोई सम्पर्क नहीं, इसी बीच संवेदिता का तबादला कहीं और हुआ और नीलेश की कम्पनी ने प्रशिक्षण के लिए 4 महीने के लिए बाहर भेज दिया।
नीलेश जब वापस आया तो कम्पनी ने एक नया टेंडर ले लिया था जिसमें रेलवे के सूचना प्रौद्योगिकी में भारी परिवर्तन होना था।
किचन से निकल कर फोन को साइलेंट कर लिया आज नीलेश काम के बाद शाम को स्टेशन चला गया, और एक प्लेटफॉर्म टिकट ले कर उसी बेंच पर बैठ गया...

This is definitely some story which penetrates deep in heart and makes me remember of someone special ❤️❤️
जवाब देंहटाएंthank you for your response
हटाएं❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️
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हटाएंCould be seen yourself in this story...great...like a mirror
जवाब देंहटाएं🙏
हटाएंNice story with a deep meaning 👍,but it seems like incomplete....
जवाब देंहटाएं🙏,,, applied realism.....
हटाएंAwesome story and quite interesting. Well job Nikhil!!
जवाब देंहटाएं😊 do share plz ....
हटाएंtitle : suits and effort is awesome 👍🏼
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हटाएंThis story shows real face of this society....😍😍😍Bhaiya
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