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प्रकृति से आध्यात्म

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 भारतीय संस्कृतियों में ब्रह्म मुहूर्त को बहुत महत्वपूर्ण समयावधि मानी गयी है जो कि सुबह 4 बजे के आस-पास का समय होता है। लगभग यही समय था, मैं बाहर निकला तो आसमान बहुत ही साफ दिख रहा था, सुबह वाले जीवों की आवाज़, चारो तरफ लोगो के जोरदार सन्नाटे , तभी मेरी नज़र सामने एक वृक्ष पर पड़ी , नीचे से ही ऊपर की तरफ ज़रा सा धनुषाकार में उसका खड़ा होना , पत्तियों का आगे की तरफ से विनम्र भाव मे सज़दा करना , इसे देख मैं सोचने लगा ; क्या पेड़ भी कभी कुछ कहना चाहते होंगे? जानवर तो फिर भी अपने इशारो से , आवाज़ के माध्यम से अपने सुख या कष्ट को व्यक्त कर सकते हैं , परन्तु वृक्ष, पेड़ , पौधे , ये पूरा वनस्पति जगत, ये आकाश, ये समुद्र , क्या ये कभी बोल सकते हैं? अगर बात कर सकते है तो क्या तरीका होगा इनको समझने का?         ये जिज्ञासाएँ होना एक मनुष्य के महत्वपूर्ण लक्षण हैं। परन्तु ये जिज्ञासा थी या मौलिकता, भेद कर पाना कठिन है , ग़ौरतलब ये है कि जिज्ञासा का उद्गम आंखों से होता है; जब चीज़े हमारी आंखों से देखी जाती है तथापि हमारे मष्तिष्क में तरह-तरह के प्रश्न कौतुहल करना आरम्भ कर देतें है...

लघुकथा #01

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मैं समझाना तो बहुत चाहता था, मगर ना जाने क्यों कुछ बोल नहीं पा रहा था. अश्कों को तो कब का किसी को बेचा हुआ कह दिया था। बुरा उनका गुस्सा होना नहीं, शायद उनका लापरवाह होना लग रहा था , बहुत हिम्मत कर के बोलने की कोशिश की तब तक फोन कट गया । उनके ख़ंजर से शब्द की तरह वो भी चले गए मुझे बींध कर, इसी घबड़ाहट से ना जाने कब मेरी नींद खुल गई। नींद के खुलने के साथ खुद को ज़ोर से काटा..... काश ये सच में सपना ही होता।

वो लम्हा अब भी जीता है

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दफन हुए वो वक्त तो क्या उन्हें याद कर ये आँखे भरता है, यादों के किसी कोने में वो लम्हा अब भी जीता है। वक्त का है बस यही बहाना नहीं कभी ठहरता है, खींची थी जो आँखों मे तस्वीरें देख उन्हें बस हिम्मत भरता है । वो लम्हा अब भी जीता है। जीता जा हर पल जो सीखा है कैद कर उन बिसरों को जो बीता है, छू कर कोने में, उसी को तू कभी हँसता तो रोता है। कल की फिक्र में तू आज खोता है तेरी जिंदगी से तेज वक्त जीता है, पनाह दे कहीं कोने में धूप में छाव सा रहता है देख कैसे वो हमें जोड़ता है। वो लम्हा अब भी जीता है।

हे मनुष्य...

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कहता खुद को विज्ञान रचयिता विचार कोई अलग रच ले प्रकृति पर तेरा वश नहीं खुद को वश में कर ले खतरे में आज मानव जाति फर्ज़ हर कोई समझ ले हे मनुष्य , बात इतनी सी समझ ले

काश... ये भी सम्भव होता!

बातों से गर बुरा लगे तो फिर हक ही क्या ? समझे न ज़ज्बातो को वो दोस्त ही क्या ? सब औपचारिक ही हो जाते गर!... काश....ये भी सम्भव होता! गर मैं ही गिरा , तुम ना उठाए ज़रूरत पर तुमको हम ना समझाए फिर ये एहसास ही क्या ? माना संवेदनशील हूँ मैं पर मुझे ना झेल पाए तो आपकी वेदना ही क्या ? इस हृदय की निचोड़ भी देख पाओ तुम काश......ये भी सम्भव होता! लगती होंगी महफ़िले आपकी सरे बाज़ार लेकिन सुकू भी कभी बिका करते है क्या? हाँ, हूँ मै नादा किये होंगे दोष मैने हज़ार परन्तु गुनाहों से मेरे जज़्बातों का तोल है क्या ? मेरी जगह पर भी रह कर देखे होते काश.... ये भी सम्भव होता! गलतियाँ उनसे(भगवान) भी हो जाती उनके भी ऊपर कोई है क्या ? ये (दोस्ती) शब्द मात्र नहीं, भावनाओं के है तार करता अभिषेक नित उन स्मृतियों की इसी में होउ गौरव मैं बारम-बार नहीं बाकी कोई गुमान आदर्श बनने की समय निकाल पढ़ लिए होते ये खुली किताब काश.....ये भी सम्भव होता!

शराब का नशा ही कुछ अजीब है

शराब का नशा ही कुछ अजीब है पहले शराब को पीने का नशा , फिर शराब को पीने के बाद वाला नशा पीने के पहले भी पीना ही समझ आता है और पीने के बाद भी पिया ही समझ आता है बाद का नशा तो लाज़मी है लेकिन पहले का नशा ज्यादा चढ़ जाता है पिने को कुछ चाहिए , इस चक्कर मे कभी कभी पेट्रोल से प्यास बुझ जाता है दोनों ही मंहगे है, फर्क कहाँ समझ आता है विशेष समझ भाव बढ़ जाता है कल शाम वाली कफ सिरप थी या पेट्रोल ये भी स्वास्थय के उतरने , चढ़ने पर समझ आता है ना paytm का कैशबैक , ना स्वाइप करने पर डिस्काउंट नशा ही इनको ठग ले जाता है कितने मासूम थे वे  , जिनको कोई भटका नहीं पाता था घर से ठेका , ठेके से घर , रास्ता भी खुद ही पाता था हरिवंश जी की मधुशाला कुजता जाता था भाव तो क्या , अर्थ भी नहीं समझ पाता था क्योंकि, शराब का नशा ही कुछ अजीब है इश्क के इजहार से लेकर राष्ट्रपति तक बन जाता था निश्चेष्ट से बात, और जानवरों से लिपट जाता था खड़े खड़े ही पाकिस्तान से लड़ जाता था माना शराब स्वास्थ्य को अपकारी है लेकिन पीने वाले को कहाँ समझ आता है उसकी क्या दशा होगी जो इसे जीवनाधार समझ जाता है क्योकि , श...

शर्मा जी की कार

शर्मा जी लाए एक नई कार झट लगा दिए निज द्वार देख वर्मा जी थे गरमाए थे आए जो कुछ हिस्से उनके द्वार मन ही मन स्नेह जताया अ दिलो दिमाग जब भर आया तब रौद्र स्वर में चिल्लाया दो (2) इंच मात्र कम है इसमें तुम्हे न जाने क्या गम है अच्छे से जब नापा-तोला तब कहीं ये शर्मा ने बोला फिर तो ऐसा बना नज़रा था मानो इंफिनिटी वॉर (infinity war )  हो रहा दोबारा था अरे हद तो तब हो गई जब दोनों के साथ घरवाली का सहारा था लेकिन बात यहीं थमी नहीं जा याचिका तक दर्ज कराई न्याय की ऊपर तक गुहार लगाई बरी कराना था वो दो (2) इंच मिठाई थी इसी वश खिलाई बड़ी बड़ी जान-पहचान  बताई थी लेकिन महीनों फाइल ऊपर न आई थी निकाल न्योछावर और भेट दिए क्योंकि रिवाज पूरी न निभाई थी सफल रिवाजों का ही परिणाम था जो लग गया तारीखों का अंबार था पैर की गर्मी दिमाग को जब चढ़ गई तब कहीं बात घर कर गई कार मात्र ही खड़ी की है किसी नाम रजिस्ट्री थोड़े हो गई परन्तु हो गई थी काफी देर जज भी सन्न , सुन ये कुरान बुला लिया गया कम्पनी का सुलेमान कहा इसमें न मेरी कोई खता है डिज़ाइनर मात्र का दोष है ये जिम्...