राम का भाषाई आदर्श लोकमंगल का प्रतिदर्श है



रामचरित नाम राम के आदर्श चरित्र से आया है, यह आदर्श चरित्र जितना ही निराकार है उतना ही यह सगुण भी है और जितना यह सगुण है उतनी ही इसकी व्यापकता है। 

इसलिए उनके आदर्शों की गणना तारों को उंगलियों से गिनने के समान है। 

सब कुछ होने के बाद सबसे कठिन होता है उसको मानव कल्याण में प्रसारित करना या दूसरों तक संप्रेषित करना । कोई भी चीज़ व्यापक रुप से तभी संप्रेषित हो सकती है जब वह काल विशेष में एक मधुर माध्यम का आवरण धारण किए रहे। 

जिस तरह कांटे और गुलाब मिले रहने के बाद भी कांटो पर ध्यान दिए बिना गुलाब हमें आकर्षित कर लेता है उसी प्रकार किसी भी बात को मधुरता से कह देने से काटे रूपी वैचारिक मलिनता समाप्त हो जाती है और गुलाब की सुगंध रूपी मानवीय चेष्टा दुगुनी हो कर खिलने लगती है।

अगर आदर्श राम की आत्मा है तो भाषा तन है, और परम ब्रह्म स्वयं राम हैं, इसीलिए किसी भी अच्छी बात को प्रसारित करने के लिए जितना उचित उस बात का अच्छा होना है उतना ही उचित माध्यम का मधुर होना है। 

वाल्मीकि जी के रामायण का माध्यम संस्कृत है जो आगे चल कर अवधी में गोस्वामी जी द्वारा रामचरित मानस हो जाना, समय की सापेक्षता, सामान्य जन की सुग्राह्यता और मधुरता के माध्यम का परिणाम है । इसी कड़ी में आगे चल कर वर्तमान के सूचना जगत् के विकास के साथ तालमेल बिठाते हुए रामानंद सागर जी ने हिंदी चलचित्र के माध्यम से जन-जन को राम चरित के रसमाधुरी का पान कराया ।

इन तीनों में माध्यम के प्रारूप अलग अलग भले ही थे लेकिन बावजूद इसके अपने - अपने काल विशेष में व्यापक सिद्ध हुए और आस्वाद्यता में बदलाव नहीं रहा। इसका एक कारण यह है कि काल विशेष में लोगों के मनोभाव से जुड़ पाना , क्योंकि भाषा की ग्राह्यता और मधुरता के बाद उसके प्रयोग का आदर्श राम के चरित्र में ही उतर सकता है । राम केवल भाषा में ही आदर्श नहीं हैं बल्कि उनका पूरा चरित्र और व्यवहार ही आदर्श हैं, इसके अनेक उदाहरण हैं,  जिसमें सबसे रोचक और उत्कृष्ट प्रसंग चित्रकूट सभा का है जहां राम की वाणी से उद्भूत ध्वनि तरंगें भाषा का आदर्श रूप लेते हुए हृदयस्थल में जा कर स्थान बना लेती हैं, उसके पश्चात् तंत्रिकाओं द्वारा उनका संप्रेषण मनोभावों को मर्यादित करती हैं, जिसके पश्चात् समूची वाणी दृश्यात्मक हो जाती है जिससे नयनों में एक दूरगामी आशा की चमक उद्विग्न हो उठती है ।

उनकी यह मधुरता न सिर्फ सज्जनों के साथ बल्कि समूचे जीव जगत् के साथ भी अन्तिम प्रयास तक थी। भाषा में राम के चरित्र के समावेशन को भाषा का आदर्श कहा जा सकता है । 

इस वजह से भाषा का पूर्ण अर्थ उसकी संप्रेषणीयता तक ही नहीं उसकी मधुरता में होती है, और इसके लिए उसका आदर्श होना आवश्यक है। इस आदर्श भाषा का मंत्र राम से आध्यात्मिक संबंध में ही निहित है । वर्तमान में विश्व जब अध्यात्म की बात करता है तो वह अपनी भाषा को माध्यम बनाता है। वस्तुतः राम का चरित्र जिस भी भाषा में वर्णित किया जाए वह भाषा आदर्श एवं माधुर्य से भर जाती है। 

यह तो राम के चरित्र की उदात्तता है जो किसी भी भाषा में  सकारात्मकता, आदर्शवादिता, सुग्राह्यता का आधान कर देती है । आज बड़े बड़े कॉरपोरेट से लेकर मानवीय संवेदना तक का आधार भाषा ही है , बिन आदर्श भाषा के यह मानवीय सभ्यताएं, यह वैज्ञानिकता, यह विकास, मानवीय संवेदनाएं, सब गूंगी एवं अशांत रहेंगी।

भाषा भाव की अनुवर्तिनी है और वह जब राम जैसे व्यक्तिव से उद्भूत होगी तो उसकी कोई तुलना ही नहीं है। इसलिए राम का भाषाई आदर्श लोकमंगल का प्रतिदर्श है।

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