कुमायूँ
तरदीद – कथावस्तु, कथानक, पात्र, सभी काल्पनिक हैं, वास्तविकता से इसका कोई सरोकार नहीं है।
पूरे 4 घण्टे की देरी के साथ अपने समय से आखिरकार गाड़ी मंजिल पर पहुँच ही गई, प्रशांत ने स्टेशन पर उतर कर नज़र को ऊंचा कर चाय की तलाश की, और उसी ओर बढ़ने लगा, हल्की लाल चेकदार शर्ट, क्रीम कलर की पैंट, एक सफेद जूता, पीठ पर बैग , चेहरे पर द्वैत भाव जिसमे नौकरी की खुशी और घर से दूर होने का दर्द दोनों ही स्पष्ट था।
ज्वाइन करने के बाद प्रशांत ने तुरन्त अपने क्षेत्र को कूच किया, कुमायूँ की वादियाँ उसे बेहद रोमांचित कर रहीं थी, इस रोमांच में पता ही नहीं चला कि कब वो अपने जंगल में आ पहुंचा। लोगों से सुन रखा था कि वन दरोगा का मतलब 'काम नहीं दाम सही', लेकिन उसने निश्चय किया था कि वो किसी भी भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं होगा।
अगले ही दिन सुबह-सुबह प्रशांत से मिलने माथुर जी आ पहुँचे, उम्र वही तकरीबन 45-50 और पेट को नियंत्रण में रखा हुआ था, चाल में फुर्ती , गोल गोल लबलबाती आंखे और चेहरे पर छोटी सी मुस्कान , मन में गाना गुनगुनाते अंदर घुसे चले आ रहे थे, सब खड़े हो हए , प्रशांत ने भी सलूट किया।
प्रशांत- जय हिंद सर!
माथुर - प्रशान्त ये आपकी पहली पोस्टिंग है? (भीनी सी मुस्कान के साथ)
प्रशांत- जी सर।
माथुर - ट्रेनिंग कैसी रही?
प्रशांत- अच्छी रही सर, मुझे तो वन के बारे में इतना कुछ...
माथुर- प्रशांत हर आदमी मन से लोक सेवा के भाव से ही आता है लेकिन मज़े की बात यह है कि लोगो को ये बाद में समझ आता है कि प्रकृति की सेवा को ही प्राथमिक समझना चाहिए क्योंकि ये मानुष का आधार है और तुमको ये अवसर इतनी ही कम उम्र में मिल गया. मैं हर सम्भव सहायता के लिए तुम्हारे साथ हूँ।
प्रशांत- धन्यवाद सर
प्रशांत को शुभकामनाएं देते हुए माथुर जी पीछे घूम कर दरवाज़े की तरफ से निकल लिए। प्रशांत ने ट्रेनिंग में बड़ी क्रूरता देखी थी, यहाँ इतनी नर्मी से उसका मनोबल बढ़ा।
थोड़ी देर कागज़ों को उलटने पलटने के बाद प्रशांत केशव की तरफ बढ़ा और केशव से वहॉं के बारे में दिलचस्पी दिखाई , दोनों में काफी बात चीत हुई, जिससे प्रशांत को ये तो समझ आ गया था की माथुर जी दिल के बहुत अच्छे हैं लेकिन जंगल के संसाधनों के आंकड़े उनके काम के प्रति लापरवाह होना दिखा रहा था।
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प्रशांत- तुम्हें माथुर सर से डर नहीं लगता?
केशव - माथुर सर को तो जंगल के पेड़ भी जाने।
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केशव- अरे नहीं सर, घूस किस वास्ते लेंगे, उनका तो शादी भी नहीं है.
प्रशांत- केशव चलो कल जंगल घूमते हैं।
केशव - जी ज़रूर।
पहाड़ों की आड़ से झांकते सूरज ने आसमान में हल्की मध्यम लालिमा की चादर चढ़ा दी , वादियों में पक्षियों की आवाज जब गूँजती है तो मन करता है कि बस सुनते जाओ, चारो तरफ तबियत खुश कर देने वाले नज़ारे , कुछ भी बोलो यार लेकिन वादियों की सुबह बड़ी ही मज़ेदार होती है।
वन में घूमते हुए प्रशान्त ने वहाँ की लकड़ियों के बारे में जानकारी ली और साथ ही वहाँ 4-5 झुग्गी देखी , केशव ने बताया कि यही लोग है जो यहाँ की लकड़ियों को बेच देते है बाहर , पहले तो ये लोग जंगल से अलग रहते थे लेकिन शासन की ढिलाई की वजह से धीरे धीरे इस संरक्षित क्षेत्र का हिस्सा बन गए, केशव बताता है कि माथुर सर भी इन्हें कुछ नहीं बोलते।
प्रशांत कभी कभी इन झुग्गी के लोगो से मिल लेता, प्रशांत जब भी मिलने जाता तो खुद को नियंत्रित करता क्योंकि वो अपने काम के प्रति ईमानदार था और इसलिए इन झुग्गी वालों का इस तरह तस्करी करना उसे पसंद नहीं था। फूलचंद के परिवार से भी मिलता, फूलचंद को इस झुग्गी में रहते 4 साल हुए।
दिन ब दिन उसे खुद में महसूस होता कि वो गलत कर रहा है , वो अपनी जिम्मेदारी से विमुख हो रहा है , प्रशांत ने निश्चय किया कि अब वो उचित कदम उठाएगा, प्रशांत सीधे जंगल पहुँच गया और फूलचंद सहित वहाँ रह रहे सभी लोगो को इकठ्ठा कर चर्चा की और एक निष्कर्ष निकाला, प्रशांत ने उन परिवारों को सुझाव दिया कि-
सबसे पहला काम वो लोग लकड़ियों को अब नहीं काटेंगे, जो लकड़ी कट चुकी है उसको उन्हें खुद संसाधनों में परिवर्तित करना होगा उसका नफा उनका खुद का होगा।
प्रशांत का दूसरा सुझाव ये था कि सभी को हफ्ते में 4 पेड़ लगाने ही होंगे , जिसके लिए उन्हें पेड़ दिया जाएगा।
प्रशांत ने अन्तिम और मज़ेदार सुझाव दिया - सभी को इस जंगल के संरक्षण के लिए ध्यान देना होगा और मुझे रिपोर्टिंग करनी होगी, साथ ही जो लोग इच्छुक हैं वो हमारे साथ सहयोगी बनें, इसके बदले उन्हें कुछ पारितोषिक मिल जाया करेगा।
अचानक से बदलाव आया, लोगो ने स्वीकार तो किया लेकिन बहुत खुशी नहीं थी चेहरे पर।
केशव से अब रहा नहीं गया, अगले दिन सुबह सुबह ही प्रशांत से पूछ बैठा "सर सुझाव तो वाजिब ही दिया लेकिन इसकी क्या गारेंटी की वो लोग अब पेड़ नहीं काटेंगे?" प्रशांत मुस्कुराया और जवाब दिया "मुझे मालूम है, अगर फूलचंद का 5 लोगों का परिवार महीने में एक पेड़ काट कर गुज़ारा करेंगे तो साथ ही महीने में 80 पेड़ लगाने भी पड़ेंगे इसी तरह अन्य परिवारों का भी जोड़ लो"
प्रशांत- एक बात और बताऊँ?
केशव- जी सर
प्रशांत- महीनों तक अपने हाथ से सींचा हुआ पेड़ काटने की हिम्मत आसान है क्या?
केशव भी सुन कर मन ही मन जाग उठा।
अगले ही दिन माथुर सर आ धमके, चेहरे पर ठहराव का भाव,
माथुर- सुझाव तो ठीक है प्रशांत, लेकिन पेड़ो का खर्च? हम लोग लाख कोशिश कर लें लेकिन बिल पास नहीं होने वाला।
प्रशांत- सर वो हम लोगो ने आपस मे बात कर ली है, उन पेड़ो के पैसे हम लोगो के चेक पोस्ट के नाश्ते से है, कुछ दिन मुफ्त की चाय बन्द रहेगी।
माथुर- प्रशांत तुम्हारे काम की सराहना करता हूँ, लेकिन चीज़े वैसी नहीं होती जो दिखती है.
इतना कहते कि माथुर सर वहाँ से वापस लिए।
"कहते हैं कि परिस्थितियों का मांजा ही मंझा हुआ रहता है", आखिर अब जंगल मे रह रहे लोगों ने चीज़ों को भांप लिया और जंगल के संरक्षण में सहयोगी हो गए, उन्हें अब लकड़ियों से बनाए वस्तुओं की वजह से आमदनी भी ज्यादा होती थी और साथ ही नए पेड़ तैयार हो रहे थे, प्रशांत ने न सिर्फ अप्रत्यक्ष रोजगार का सृजन किया बल्कि जंगल को फिर से हरा कर क्षति पूर्ति भी किया।
चीज़े सम्भले ज्यादा दिन हुए नहीं थे कि प्रशांत की टेबल पर एक मेमो लेटर आ गिरा जिसमे लिखा था कि वो जवाब दे कि जंगल की "व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ करने तथा संगठन से इतर लोगों को संगठन के कार्य मे लिप्त करने की सज़ा उसे क्यों ना दी जाए?" इस पत्र का जवाब उसे जल्द ही देना था।
प्रशांत ने इसकी बिल्कुल कल्पना नहीं कि थी, अब वो सोच में पड़ गया कि आखिर करे क्या, क्या उन लोगो के चूल्हे फोड़े या अपने , चिंता में उसने कुछ खाया भी नहीं।
रात होने को थी, उसने सोचा कि माथुर सर के घर जाऊ, शायद वही कुछ मतद कर सके.....
After performing his honesty, felt questionable service!!
जवाब देंहटाएंWaiting rasfeber for his nxt steps...
Good fortune to read this story♥️.
🙏
हटाएंWell articulated.
जवाब देंहटाएं🙏
हटाएंWahoo it's really ultimate story🙏
जवाब देंहटाएं🙏
हटाएं"Conservation and protection of our nature is our prime duty."
जवाब देंहटाएंSuch a laudable story👏
A beautiful presentation with a thoughtful notion.
Keep up the good work!