भाषा के तकनीकिकरण में सांस्कृतिक चुनौतियाँ



यूं तो हर भाषा अपने में वैज्ञानिक होती है बल्कि हिंदी की लघु मात्रा (I) और गुरुमात्रा (S) मानो हिंदी व्याकरण की "बाइनरी" हो और इसी वैज्ञानिकता के कारण भाषा सांस्कृतिक होती है । जिस तरह नदी में खनिज की उपलब्धता होती है उसी प्रकार अपने भाषा मूल धर्म में एक लम्बे समय के ऐतिहासिक यात्रा, भौगोलिक परिवेश, राजनीतिक स्थितियाँ और व्यावहारिक परिवर्तन (व्यापार, मनोवृत्ति आदि के कारण) को अनुस्यूत किए रहता है, इसलिए मानवीय मूल्यों का भी इसमें एक उर्वरक की भूमिका है ।

इसके इतर जिस तरह मानव के अस्तित्व के लिए संस्कृति निहित सभ्यता की आवश्यकता होती है उसी तरह किसी भी भाषा के विन्यास के दो कारक होते हैं, एक सभ्यता और दूसरी संस्कृति इसलिए भाषा के तकनीकीकरण में उसके संस्कृति का समावेशन आवश्यक है। 

सभ्यता परिमित होती है, शब्दों के भौतिक क्षेत्र की प्रगति में सभ्यता का योगदान होता है जबकि संस्कृति शब्दों के गुण धर्म में सांस्कृतिक चेतना काम करती है, संस्कृति अपरिमित होती है।

"कुएं की गड़ारी" शब्द भर से कुआं का जल तुरंत स्मृति पर रस्सी के सहारे बाल्टी लटक जाती है, अन्य क्षेत्रों में इसे अलग सम्बोधन मिला होगा परन्तु यहां व्यवहार के साथ परिवेश को ओढ़े हुए है। यह मात्र शब्द नहीं है यह एक संस्कृति थी जिसका अप्रासंगिक होने की वजह से गला घुट चुका है । 

इसी तरह "गंउखा"/"अरवा "शब्द से मस्तिष्क जहां जाकर ठौर लेता है वहां "आलमारी" शब्द से नहीं जा सकता क्योंकि आलमारी तो लकड़ी की भी हो सकती है, ईंट की भी, या अन्य इसकी विशेषताओं की सूची लंबी हो सकती है परंतु आकृति से अमूर्त है । 

भाषा की तकनीकी सभ्यता का सबसे बड़ा कारक आज के दौर में सूचना प्रद्यौगिकी है (ICT), यह भाषा को कंप्यूटरीकरण कर के संप्रेषित करता है। जिस तरह गांवों में खंभे के सहारे तार झूल जाने से "टॉर्च" अप्रासंगिक हो गये हैं । टंकण की सुविधा से भारतीय भाषाओं के लिए बड़ी सहूलियत हुई परंतु इसके आगे की रूपरेखा स्पष्ट नहीं है, वर्तमान प्रयासों के समय को उपयोग में ला सकने के कारण भारतीय भाषा तकनीकी पिछड़ेपन का शिकार हो रहा है।

ICT ने आधुनिकता और सार्वभौमिकता का हवाला देते हुए बड़े ही सहजता और तीव्रता के साथ शब्दों को सभ्य करने के बहाने गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों स्तर पर सीमित कर के संस्कृति से समझौता कर लिया है, विषेश रूप से भारतीय भाषाओं को;  आप नज़र दौड़ा कर देखें तो भारतीय भाषाओं के गिने चुने शब्द ही करीने से लगे हुए सूचना तकनीक की दुनिया के माध्यम से हमारे आस पास दिखेंगे। 

विश्व स्तर पर डिजिटल लेखन को बढ़ावा तो दिया गया है इसके लिए तमाम 'नोट टेकिंग' एप्लिकेशन जैसे 'वन नोट' (माइक्रोसॉफ्ट) , 'व्हाइट बोर्ड' (गूगल) , आदि के साथ लेखन उपकरणों का भी इजाद हुआ है परंतु अभी सबके लिए सुगम्य नहीं है । भारत में इनकी उपलब्धता का स्तर बहुत न्यून है और जो उपलब्ध हैं भी, वो बहुत ऊंचे दर्जे पर बिक रहें है, जिसके कारण सब के पहुंच से बाहर है। भारत में ऊंचे दर्जे पर भी जो उपलब्ध हैं भी तो उनको सिर्फ शौकिया लोग उपयोग करते हैं, उनमें भारतीय भाषाओं  के लिए अभी कोई स्थान नहीं है । इससे अन्य विभिन्न कठिनाइयां छात्रों को भी चुनौती दे रही हैं। 

इसके साथ ही आए दिन ICT के आढ़तों द्वारा भारतीय भाषाओं को जगह देने की बात की जाती है, किसी भी भाषा को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए ये आवश्यक भी है कयोंकि भाषा ही सब उन्नति का मूल है। इसलिए भाषा समावेशी होनी चाहिए मिश्रित नहीं, मिश्रित कर के भाषा की संस्कृति से समझौता करना किसी भी भाषा की जड़ों को कमज़ोर करना है ।  दूसरे इन सभी डिजिटल प्लेटफॉर्म के इस्तेमाल की पहली शर्त है कि आपको वो विशेष भाषा आनी चाहिए, जिसका दूरगामी परिणाम यह है कि भाषाई आधार पर प्रच्छन्न पिछड़ापन उभनरे लगा है, इससे सांस्कृतिक खाई गहरी होती चली जायेगी। 

कृत्रिम बौद्धिकता (AI), में विशेष भाषा का वर्चस्व बने रहने से तकनीकी संसाधनों पर एकाधिकार विश्व को न जानें कौन सी दिशा दे? चैट जीपीटी, युडली, गामा, प्लेग्राउंड जैसे अन्य ने अपने प्राॅम्प्ट में भारतीय भाषाओं को कहीं भी जगह नहीं दिया है। 'गूगल' ने 'मर्लिन' में सुधार किया है परन्तु अभी बहुत अपरिपक्व और संभावनाओं से युक्त है। जो परोसा जा रहा है उससे भारतीय भाषाओं का गुण धर्म लुप्त और अशुद्ध होता जा रहा है, साथ ही विषयगत शब्दावलियों की मात्रा भी न्यून हो गई है ।

विश्व में आज यंत्रमानव (रोबोट) कि अवधारणा अपने स्वरूप में आ चुकी है,  इनका इस्तेमाल बाज़ार के अवलोकन, ग्राहक सेवा, स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यटन, मीडिया जैसे क्षेत्रों में होता है । 'सोफिया' (बोस्टन डाइनैमिक्स) विश्व की पहली महिला यंत्र मानव है जिसे किसी देश की नागरिकता प्राप्त हुई है, 'सोफिया' को सामाजिक यंत्रमानव कहा जाता है क्योंकि इसका इस्तमाल विपणन और साक्षात्कार से संबंधित है । इसी तरह अन्य 'जिया जिया' (चीन), 'नादिन' (जापान), आदि सभी व्यापार में योगदान के लिए महत्वपूर्ण हैं परंतु यह यंत्र मानव दूसरी भाषाओं को समझ तो सकते हैं लेकिन एक सीमा तक और उसका प्रतिउत्तर अभी नहीं कर सकते हैं , यह अपनी भी भाषा में कृत्रिम हैं व्यवहारिक नहीं । 

भारत में 'मानव' पहला यंत्र मानव है इसके बाद 'RADA' (विस्तारा), 'शालू' (बतौर शिक्षक) आई.आर.ए. (एच.डी. एफ.सी.), लेकिन अभी तक कोई भी यंत्रमानव हिन्दी में नहीं बोल सकता था, इसके बाद 'रश्मि' यंत्रमानव विश्व की पहली यंत्रमानव है जो हिन्दी बोल सकती थी साथ ही अन्य भारतीय भाषाएं भी । इसके बाद 'सना' (आज तक) भी हिन्दी की पत्रकार के रूप में है, यह यंत्रमानव भारतीय भाषाएं तो बोल सकते हैं परंतु साहित्यिक भावनाओं से अभी जुड़ नहीं सके हैं । 

जब तक इन यंत्रमानवों में साहित्यिक भावनाओं की समझ विकसित नहीं होगी तब तक सभी वर्ग लाभान्वित नहीं हो सकते । .

'नासा' (NASA)और 'इसरो' (ISRO)का 'अन्तरिक्ष भाषा कार्यक्रम'(space language program) या गूगल का 'प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण'(natural language processing) हो, यह सब एक ऐसी भाषा को अद्यतन करना चाहते हैं जो निकट भविष्य में अंतरिक्ष के साथ साथ दूसरे ग्रहों की कोख में पलने वाली संभावित मानव सभ्यता से संपर्क साध सके, जिसकी तरंगों में न्यूनतम त्रुटियां मिलें। 

विश्व में लगभग 6000 से अधिक भाषाएँ हैं और किसी भी भाषा को बोलने वाले लोग अलग अलग लहज़े से बोलते हैं जिससे उनका गुण धर्म समान नहीं रह जाता । उदहारण के लिए आप किसी एक भाषा को ही किसी दक्षिण भारतीय , पूर्वोत्तर भारतीय, अमेरिकी, अथवा किसी अन्य से उच्चारित करके सुनिए, भौगोलिक और शैक्षणिक भिन्नताओं के कारण सबके लहज़े में फर्क मिलेगा इसी कारण से इनके अंतरिक्ष तरंगों में भारी त्रुटियाँ विद्यमान रहती हैं, परंतु वैज्ञानिकों का मानना है कि संस्कृत के शुद्ध उच्चारण करने से लहज़े में कोई फर्क नहीं आता है ।

इधर संस्कृत को स्पेस लैंग्वेज का जामा पहनाने की तैयारी हो रही है उधर दूसरी तरफ भाषाई प्रतिस्पर्धा ने किलकारी भरनी शुरू कर दी। 

सरकारो द्वारा भारतीय भाषाओं में शिक्षा पर ज़ोर दिया जा रहा है और प्रयास को गति भी मिली है परंतु आज भी किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में समस्या के समाधान में सिर्फ अंग्रेजी ही स्वीकारने की शर्त रखी जाती है। न्यायालयों की कार्यवाहियां भी एक भाषा में ही संचालित हो रही है। 

सार्वजनिक स्थलों (उद्यान, परिवहन, पर्यटन) आदि जगहों पर लोगों का ध्यान अधिक आकर्षित होता है,सड़क चलते प्रचार संबंधित लिखित दस्तावेजों पर, दुकानो और मार्गदर्शकों की लिपि  में सावधानी बरतने से बड़े स्तर पर समय पूर्व सुधार की संभावना है । 

अक्सर देखा जाता है कि जब कोई नयी तकनीक आती है तो उससे आपराधिक मामले सहज भाषा में अंजाम दिए जाते हैं परंतु उसी सहजता से उसके उपयोग की व्याख्या नहीं की जाती है । उच्चशिक्षा में भाषा के सूचना और संचार तकनीक की विविष्ट कार्यक्रमों का आयोजन करवा कर रोजगार उन्मुख खोज पर ज़ोर देने की आवश्यकता है । 

भाषा अपनी संस्कृति से जुड़ कर ही उन्नत हो सकती है और एक उन्नत भाषा ही राष्ट्रीय उन्नति की द्योतक हो सकती है लेकिन साथ ही उसको ICT और कृत्रिम बौद्धिकता में भी उसी शुद्धता, मौलिकता और सांस्कृतिक रूप से सुगठित परिमार्जित शब्द भंडार से सभ्य किया जाना चाहिए साथ ही अन्य भाषाओं के बीच समावेशन का प्रस्ताव हो जिससे भाषाई प्रतिस्पर्धा अपनी मूल्यात्मक हीनता को प्राप्त न कर सके और रोजगार को बढ़ावा मिले । 

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