अभिनय
खुद को कितना भी बलपूर्वक व्यस्त किए रहोगे, बावजूद न सिर्फ मन बल्कि उस इंसान की खुशबू भी वातावरण में घुली हुई सी लगेगी, मानो वो अदृश्य होकर तुम्हारे बगल बैठा हो, मानो आपका भार बाॅंटने को अपनी जिम्मेवारी समझ कर्तव्य पूरा कर रहा हो , साथ ही लेकिन अदृश्य हो कर कड़ी सजा देना चाह रहा हो , सजा कहो या फिर शायद याद दिलाना चाह रहा हो लेकिन याद क्या दिलाना है? याद भी वो आते हैं जो कभी रहे हो। बात सिर्फ खुशबू तक नहीं रह गई है, यह उससे भी आगे बढ़कर उसके एहसास मानो चूरन जैसे खट्टे - मीठे दोनों भाव रह-रह कर विद्रोह कर बैठते हैं। काफी देर तक सोचने के बाद हल यही निकला कि बिना हल गड़ाए उपज संभव नहीं है, हल जब भी चलता है तो धरती को चीरता हुआ चलता है और जब तक यह ना हो तो खाद्यान्न पूर्ण हो ही नहीं सकता। परंतु इतनी परिश्रम क्यों; अगर ये जगत् मिथ्या है तो फिर क्या फर्क पड़ता है किसी से, अकेले आए थे और अकेले ही चले जाना है, ये पैदा होने से अंतिम शयन तक के बीच का जूझ किस लिए, कमीज़ 800 को हो या 8000 की काम तो वही है दोनों का, एक दिन सब छूट ही जाना है। लेकिन नहीं कुछ तो है जो आपको बाॅंधे रखता ...