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आखिर मैं क्या लिखूँ ?

धरा के मेहनती हृदय में पेड़ की शीतल छाँव में बैठा कुछ सोच रहा था आखिर मैं क्या लिखूँ ? मांग रहे  जो सबूत शहीदों के बलिदानों की कर रहे जो जाँच अन्नदाता के मौत की सोच रहा उनके बारे में आखिर मैं क्या लिखूँ ? कतिपय कतराते जो देना गरीब को दान देना होटलों में टिप मानते  वो अपनी शान सोच रहा उनके बारे में आखिर मैं क्या लिखूँ ? तरस रहे जो नैन रोटी को हालत उनकी है संगीन फेक देते अन्न खुसी से वो लोग जिनकी थाली है रंगीन सोच रहा उनके बारे में आखिर मैं क्या लिखूँ ? करते जब धार्मिक हिंसा शर्मसार तब होती मानवता करते जो छल आपस मे दूषित उनकी है मानसिकता सोच रहा उनके बारे में आखिर मैं क्या लिखूँ ? दबे हुए लगाते वो अपने मेहनत की बोली लूट लेते है वो लोग जिनकी खाकी है झोली सोच रहा उनके बारे में आखिर मैं क्या लिखूँ ?   कुछ, सोच रहे धरा को आखिर कैसे सींच दूँ ?

काल्पनिकता की वास्तविकता

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                            साहित्य समाज का दर्पण है , सृजन के काल के समाज की राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक स्थिति को दर्शाता है। साहित्य के अंतर्गत- गद्य, पद्य, उन्यास, निबंध, आदि लेख आते है, किंतु मैं काल्पनिकता  को साहित्य की श्रेणी से जोड़ना उचित नहीं समझता क्योंकि ये विचार (काल्पनिकता एक विचार है) आगे (भविष्य) की विचारधारा है जिसका जन्म वक्त की नजाकत को देखते हुए होता है। वर्तमान की आवश्यकताओं से सम्पूर्ण होने के बाद ही मनुष्य आगे (भविष्य) की सोचता है जिसमे वर्तमान समाज की कोई परिभाषा नहीं दिखती, कुछ बुद्धजीवियों का ये तर्क भी है कि काल्पनिकता के जन्म का कारक ही वर्तमान स्थिति है , किंतु मेरी दृष्टि से काल्पनिकता अनिश्चितता से भरी होती है , काल्पनिकता का वास्तविकता में परिवर्तन ही इस विचार की पुष्टि है।