काश... ये भी सम्भव होता!
बातों से गर बुरा लगे तो फिर हक ही क्या ? समझे न ज़ज्बातो को वो दोस्त ही क्या ? सब औपचारिक ही हो जाते गर!... काश....ये भी सम्भव होता! गर मैं ही गिरा , तुम ना उठाए ज़रूरत पर तुमको हम ना समझाए फिर ये एहसास ही क्या ? माना संवेदनशील हूँ मैं पर मुझे ना झेल पाए तो आपकी वेदना ही क्या ? इस हृदय की निचोड़ भी देख पाओ तुम काश......ये भी सम्भव होता! लगती होंगी महफ़िले आपकी सरे बाज़ार लेकिन सुकू भी कभी बिका करते है क्या? हाँ, हूँ मै नादा किये होंगे दोष मैने हज़ार परन्तु गुनाहों से मेरे जज़्बातों का तोल है क्या ? मेरी जगह पर भी रह कर देखे होते काश.... ये भी सम्भव होता! गलतियाँ उनसे(भगवान) भी हो जाती उनके भी ऊपर कोई है क्या ? ये (दोस्ती) शब्द मात्र नहीं, भावनाओं के है तार करता अभिषेक नित उन स्मृतियों की इसी में होउ गौरव मैं बारम-बार नहीं बाकी कोई गुमान आदर्श बनने की समय निकाल पढ़ लिए होते ये खुली किताब काश.....ये भी सम्भव होता!